शंकर शेष रचित एक और द्रोणाचार्य को पढ़ते हुए एक अध्यापक की प्रतिक्रिया
जितना यह विषय सरल लगता है, उतना यह सरल नहीं। गुरु द्रोणाचार्य ने जो अनैतिक कार्य किया उसके पीछे एक बड़ी भूमिका है । गुरु द्रोणाचार्य का जीवन कितने कष्टों व दुखों में बीत रहा था जब वो पूर्ण सत्य का साथ देते थे। आजीविका का कोई साधन नहीं था । घर में बीवी और बच्चा भूखा था। छोटा बालक अश्वत्थामा गोरस के लिए अपना माथा-पीट रहा था। ऐसा जीवन हो तो नैतिक बनें रहने वाले कितने पुरुषों के साथ कोई स्त्री रहेगी और कितने दिन? ऐसी परिस्थिति जहां घर में खाने को अन्न नहीं । जिसकी पत्नी के शरीर पर फटे वस्त्र और बेटा भूखा हो उस पुरुष के लिए उसका पहला कर्तव्य क्या होगा नैतिकता या फिर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करना । द्रोणाचार्य ने वही किया जो उसे समय सही था । इसी समय द्रोणाचार्य को एक कार्य मिला राजा के बेटों को पढ़ाने का और उन्होंने वही किया जो एक पारिवारिक पुरुष को करना चाहिए । उन्होंने पद स्वीकार किया और अपना पारिवारिक दायित्व पूरा किया अपनी पत्नी और बेटे को एक अच्छा जीवन दिया । (हम और आप भी यही करते। फ़र्क बस इतना है कि कोई इसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं करेगा) और अपनी नौकरी बचाने के लिए द्रोणाचार्य को वो सब अनैतिक कार्य करने पड़े जिस पर आज भी दुनिया उन्हें कोसतीं है।
मैं यहां पर गुरु द्रोणाचार्य ने जो किया उसे कदापि सही नहीं ठहरा रहा। मैं बस इस घटना को दूसरे दृष्टिकोण से देखने का प्रयास मात्र कर रहा हूं। यह दृष्टिकोण बना है यथार्थ और परिस्थिति से। साहित्यिक नैतिकता, साहित्यिक जीवन और साहित्य में जितने उच्च विचार हम रखते हैं उन सभी के साथ वास्तविक जीवन जीना कठिन ही नहीं असंभव है । वास्तविक जीवन में सत्य और असत्य कुछ भी नहीं है । इसका मिश्रण ही जीवन है।
हम साहित्य के विद्यार्थी/अध्यापक इतनी जल्दी हार नहीं मानेगी। सूरज की एक किरण अभी भी हमारे पास है। हम व्यक्तिगत ईमानदारी रखेंगे । जितना हो सके उतना सत्य बोलने का प्रयास करेंगे और सत्य का साथ देने का प्रयास करें । जैसे मुक्तिबोध ने कहा है कि संपूर्ण सत्य हम साहित्य में लिख नहीं सकते लेकिन उसका प्रतिबिंब तो लिख ही सकते हैं। जैसे संपूर्ण सूर्य के बारे में हम नहीं लिख सकते लेकिन डबरे पर सूरज का बिंब तो दिखा सकते हैं। और एक अध्यापक के रूप में जितना हो सके उतना सत्य बोलने का प्रयास करेंगे और सत्य का साथ देंगे। परिपूर्ण होना एक कल्पना मात्र ही है । लेकिन पूर्णता की तरफ अग्रसर होना ही सही मार्ग कहलायेगा और हम इतना ही कर सकते हैं।
©️ सुरज बिरादार