कफ़न - मुंशी प्रेमचंद

धनपत राय श्रीवास्तव ( ३१ जुलाई १८८० – ८अक्टूबर १९३६ जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।

१९०६ से १०३६ के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में १९१८ से १९३६ तक के कालखण्ड को 'प्रेमचंद युग' या 'प्रेमचन्द युग' कहा जाता है।

जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद (प्रेमचन्द) की आरम्भिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के सम्बन्ध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पन्द्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया।"[1] मुंशी प्रेमचंद[मृत कड़ियाँ] अपने शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखते हैं की “पिताजी ने जीवन के अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दिया|

इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।"[2] उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया[3]। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 1906 में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं। वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन सन्ताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। उनकी शिक्षा के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया और 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया।"[4] १९१९ में बी.ए.[5] पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।

1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। 1933 ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबन्ध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।[6]

साहित्यिक जीवन

प्रेमचंद (प्रेमचन्द) के साहित्यिक जीवन का आरंभ (आरम्भ) 1901 से हो चुका था[7] आरंभ (आरम्भ) में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-"प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।"[8] उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद'[9] है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से लिखना पड़ा। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था।[10] 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई।[11]

१९१५ ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई।[12] १९१८ ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे।

१९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। १९२२ में उन्होंने बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया। १९२५ ई. में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पारितोषिक भी मिला। १९२६-२७ ई. के दौरान उन्होंने महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। १९२०-३६ तक प्रेमचंद लगभग दस या अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है।

कहानी

इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद्र Archived 2021-05-08 at the वेबैक मशीन ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन(राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।[17]

कहानी संग्रह-

बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित विनोद वर्मा के साथ हुए साक्षात्कार रचना दृष्टि की प्रासंगिकता-मन्नू भंडारी में मन्नू भंडारी प्रेमचंद के विषय में बताती हैं कि-"साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खासकरके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदाहरण था. साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी." [22]

विचारधारा

प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। १९३६ तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया। अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। इसके साथ ही प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी। प्रेमचंद ने १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना।[23] इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं।

विरासत

प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने भूमिका अदा की है। उनके नामों का उल्लेख करते हुए रामविलास शर्मा प्रेमचंद और उनका युग में लिखते हैं कि- "प्रेमचंद की परंपरा को 'अलका', 'कुल्ली भाट', 'बिल्लेसुर बकरिहा' के निराला ने अपनाया। उसे 'चकल्लस' और 'क्या-से-क्या' आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है।"[24] बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित लेख स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि- ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं।[25]

स्मृतियाँ

प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३० जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया।[29] गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा।[30]

विवाद

प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाए हैं। जैसे- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि।

"हंस" के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।[31]

 कफ़न: मुंशी प्रेमचंद

मूल पाठ :-

1
                      झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी. रह-रहकर उसके मुंह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे. जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गांव अन्धकार में लय हो गया था.
घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं. सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ.
माधव चिढ़कर बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूं?
‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पांव पटकना नहीं देखा जाता.’
चमारों का कुनबा था और सारे गांव में बदनाम. घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता. माधव इतना काम-चोर था कि आधे घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता. इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी. घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी. जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियां तोड़ लाता और माधव बाज़ार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते. गांव में काम की कमी न थी. किसानों का गांव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे. मगर इन दोनों को उसी वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता. अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल ज़रूरत न होती. यह तो इनकी प्रकृति थी. विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं. फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जिये जाते थे. संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए. गालियां भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई ग़म नहीं. दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे. मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पांच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते. घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था. इस वक़्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे. घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था. माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था. जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी. जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे. बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे. कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी मांगते. वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें.
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहां तो ओझा भी एक रुपया मांगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ़ कर देगा. बोला-मुझे वहां जाते डर लगता है.
‘डर किस बात का है, मैं तो यहां हूं ही.’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुंह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूं! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पांव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूं कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा. भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे. मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया.’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी. हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था. हां, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता. इसलिए जहां उसकी मण्डली के और लोग गांव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गांव उंगली उठाता था. फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे. कल से कुछ नहीं खाया था. इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें. कई बार दोनों की जबानें जल गयीं. छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुंह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुंच जाए. वहां उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे. इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते. हालांकि इस कोशिश में उनकी आंखों से आंसू निकल आते.
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था. उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता. तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला. लड़की वालों ने सबको भर पेट पूड़ियां खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूड़ियां खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊं कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, मांगो, जितना चाहो, खाओ. लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया. मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं. मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं. और जब सबने मुंह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली. मगर मुझे पान लेने की कहां सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था. चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया. ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता.
‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था. अब तो सबको किफायत सूझती है. सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो. पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहां रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है. हां, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियां खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी. अच्छा पका था. तू तो मेरा आधा भी नहीं है.’
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियां ओढ़कर पांव पेट में डाले सो रहे. जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों.
और बुधिया अभी तक कराह रही थी.



2

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी. उसके मुंह पर मक्खियां भिनक रही थीं. पथराई हुई आंखें ऊपर टंगी हुई थीं. सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी. उसके पेट में बच्चा मर गया था.

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया. फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे. पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे.

मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था. कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी. घर में तो पैसा इस तरह ग़ायब था, जैसे चील के घोंसले में मांस?

बाप-बेटे रोते हुए गांव के ज़मींदार के पास गये. वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे. कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे. चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए. पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गांव में रहना नहीं चाहता.

घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आंखों में आंसू भरे हुए कहा,‘सरकार! बड़ी विपत्ति में हूं. माधव की घरवाली रात को गुजर गयी. रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे. दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी. अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये. घर उजड़ गया. आपका गुलाम हूं, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा. हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया. सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी. आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊं.’

ज़मींदार साहब दयालु थे. मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था. जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहां से. यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर ख़ुशामद कर रहा है. हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था. जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए. मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुंह से न निकला. उसकी तरफ़ ताका तक नहीं. जैसे सिर का बोझ उतारा हो.

जब ज़मींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गांव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था. किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने. एक घण्टे में घीसू के पास पांच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी. कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी. और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले. इधर लोग बांस-वांस काटने लगे.

गांव की नर्मदिल स्त्रियां आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूंद आंसू गिराकर चली जाती थीं.



3

बाज़ार में पहुंचकर घीसू बोला,‘लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!’

माधव बोला,‘हां, लकड़ी तो बहुत है, अब कफन चाहिए.’

‘तो चलो, कोई हलका-सा कफन ले लें.’

‘हां, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी. रात को कफन कौन देखता है?’

‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए.’

‘कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है.’

‘और क्या रखा रहता है? यही पांच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते.’

दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे. बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे. कभी इस बजाज की दुकान पर गये, कभी उसकी दुकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जंचा नहीं. यहां तक कि शाम हो गयी. तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुंचे. और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये. वहां जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे. फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना.

उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे.

कई कुज्जियां ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये.

घीसू बोला,‘कफन लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता. कुछ बहू के साथ तो न जाता.’

माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो,‘दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!’

‘बड़े आदमियों के पास धन है, फूंकें. हमारे पास फूंकने को क्या है?’

‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफन कहां है?’

घीसू हंसा,‘अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये. बहुत ढूंढ़ा, मिले नहीं. लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे.’

माधव भी हंसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर. बोला,‘बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!’

आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी. घीसू ने दो सेर पूड़ियां मंगाई. चटनी, अचार, कलेजियां. शराबखाने के सामने ही दूकान थी. माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया. पूरा डेढ़ रुपया ख़र्च हो गया. सिर्फ़ थोड़े से पैसे बच रहे.

दोनों इस वक़्त इस शान में बैठे पूड़ियां खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो. न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र. इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था.

घीसू दार्शनिक भाव से बोला,‘हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?’

माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा. भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो. उसे बैकुण्ठ ले जाना. हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था.

एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी. बोला,‘क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहां जाएंगे ही?’

घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया. वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था.

‘जो वहां हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफन क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’

‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’

‘पूछेगी तो जरूर!’

‘तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूं? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’

माधव को विश्वास न आया. बोला,‘कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये. वह तो मुझसे पूछेगी. उसकी मांग में तो सेंदुर मैंने डाला था. कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’

‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया. हां, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएंगे.’

‘ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी. कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था. कोई अपने दोस्त के मुंह में कुल्हड़ लगाये देता था.

वहां के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा. कितने तो यहां आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे. शराब से ज़्यादा यहां की हवा उन पर नशा करती थी. जीवन की बाधाएं यहां खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं. या न जीते हैं, न मरते हैं.

और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियां ले रहे थे. सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं. दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है.

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूड़ियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आंखों से देख रहा था. और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया.

घीसू ने कहा,‘ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी. मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुंचेगा. रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!’

माधव ने फिर आसमान की तरफ़ देखकर कहा,‘वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी.’

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला,‘हां, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी. किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं. मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी. वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?’

श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया. अस्थिरता नशे की खासियत है. दु:ख और निराशा का दौरा हुआ.

माधव बोला,‘मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा. कितना दु:ख झेलकर मरी!’

वह आंखों पर हाथ रखकर रोने लगा. चीखें मार-मारकर.

घीसू ने समझाया,‘क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी. बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये.’

और दोनों खड़े होकर गाने लगे-

‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी.’

पियक्कड़ों की आंखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे. फिर दोनों नाचने लगे. उछले भी, कूदे भी. गिरे भी, मटके भी. भाव भी बताये, अभिनय भी किये. और आख़िर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े.