उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' (7 जुलाई 1883 - 12 सितम्बर 1922) हिन्दी के कथाकार, व्यंगकार तथा निबन्धकार थे।
जीवन-वृत्त
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर में हुआ था। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के निवासी थे। ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया।
चंद्रधर को घर में ही संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला। आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की।
आगे की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद आ गए जहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. किया। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. किया। चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।
अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।
जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं॰ मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया।
इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया।
इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है।
व्यावसायिक जीवन
39 वर्ष की जीवन-अवधि में उन्होंने कहानियाँ, लघु-कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ लिखीं। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन सरस्वती में 1915 ई. में हुआ। उन्होंने ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ नामक निबंध और पुरानी हिन्दी नामक लेखमाला भी लिखी। ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ उनकी शोधपरक पुस्तक थी।
शैली
उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है-जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में इससे गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।
रचनाएं
कहानियाँ-
सुखमय जीवन 1911
बुद्धू का कांटा 1914
उसने कहा था 1915
निबंध-
मारेसि मोहिं कुठाँव
कछुआ-धरम
आलोचना-
भाषा-शैली
गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुख़ातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवरने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामरस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नज़र आती है। कहीं वे ‘पृश्णि’, ‘क्लृप्ति’ और ‘आग्मीघ्र’ जैसे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं ‘बेर’, ‘बिछोड़ा’ और ‘पैंड़’ जैसे ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अंग्रेज़ी अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। पर भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहज़े से उनके लेखन में एक अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। हाँ गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और उदाहरण बहुत देते हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग के ज्ञान की माँग भी करता है आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के इतने ज्ञान की अपेक्षा करना ही गलत है। इसलिए यह अतिरिक्त ‘प्रसंगगर्भत्व’ उनके लेखन के सहज रसास्वाद में कहीं-कहीं अवश्य ही बाधक होता है।
बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे-शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य पुराण-प्रसंग इतिहास, विज्ञान, भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। वह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिन्दी की सक्षमता का जीवन्त प्रमाण है। हर सन्दर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हलकी क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-सन्धि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का भी प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो॰ नामवर सिंह का भी कहना है, ‘‘गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।’’
आज के युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता
अपने और आधुनिकता’ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों से उनके गम्भीर जुड़ाव और इनसे सम्बद्ध उनके चिन्तन तथा प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट होती है। उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किए बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं।
‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार : 1920)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’ (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य : 1906)। उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा...(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’ (डिनामिनेशनल कॉलेज : 1904)। धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे।
उसने कहा था - चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी'
मूल पाठ :-
बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं. जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगों से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसारभर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर ‘बचो खालसाजी, हटो भाईजी, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा’ कहते हुए सफ़ेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं. क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई. यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं,‘हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमां वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी वालिए.’ समष्टि में इसका अर्थ है,‘तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा.’
ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां. दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था.
‘तेरा घर कहां है?’
‘मगरे में...और तेरा?’
‘मांझे में, यहां कहां रहती है?’
‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं.’
‘मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बाज़ार में है.’
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले.
कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकुरा कर पूछा,‘तेरी कुड़माई हो गई?’
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया.
दूसरे, तीसरे दिन सब्ज़ी वाले के यहां, या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते. महीनाभर यही हाल रहा.
दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला.
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली,‘हां, हो गई.’
‘कब?’
‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू...’ लड़की भाग गई.
लड़के ने घर की सीध ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुंचा.
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है. दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं. लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से. पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं. जमीन कहीं दिखती नहीं. घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है. इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े. नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं. जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है. न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं.’
‘लहना सिंह और तीन दिन हैं. चार तो खन्दक में बिता ही दिए. परसों ‘रिलीफ़’ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी. अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे. उसी फिरंगी मेम के बाग़ में. मखमल की सी हरी घास है. फल और दूध की वर्षा कर देती है. लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती. कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क़ को बचाने आए हो.’
‘चार दिन तक पलक नहीं झपकी. बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही. मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए. फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो. पाजी कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं. यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं. उस दिन धावा किया था. चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था. पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो...’
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?’ सूबेदार हजार सिंह ने मुस्कुराकर कहा,‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते. बड़े अफ़सर दूर की सोचते हैं. तीन सौ मील का सामना है. एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?’
‘सूबेदार जी, सच है,’ लहना सिंह बोला,‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है. सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं. एक धावा हो जाए, तो गरमी आ जाए.’
"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल. वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी बाहर फेंको. महा सिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले.’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे.
वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था. बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला,‘मैं पाधा बन गया हूं. करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए. लहना सिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा,‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो. ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा. हां, देश क्या है, स्वर्ग है. मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा.’
‘लाड़ी होरा को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम...’
‘चुप कर. यहां वालों को शरम नहीं.’
‘देश-देश की चाल है. आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते. वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठों में लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क़ के लिए लड़ेगा नहीं.’
‘अच्छा, अब बोध सिंह कैसा है?’
‘अच्छा है.’
‘जैसे मैं जानता ही न होऊं! रातभर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो. उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो. अपने सूखे लकड़ी के तख़्तों पर उसे सुलाते हो. आप कीचड़ में पड़े रहते हो. कहीं तुम न मांदे पड़ जाना. जाड़ा क्या है, मौत है और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते.’
‘मेरा डर मत करो. मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा. भाई कीरत सिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी.’
वजीरा सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा,‘क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां भाइयों, कैसे?’
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुं
क बणाया वे मजेदार गोरिये
हुण लाणा चटाका कदुए नुं
कौन जानता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे. पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों.
दोपहर, रात गई है. अन्धेरा है. सन्नाटा छाया हुआ है. बोधा सिंह ख़ाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहना सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है. लहना सिंह पहरे पर खड़ा हुआ है. एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर. बोधा सिंह कराहा.
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
‘पानी पिला दो’
लहना सिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगा कर पूछा,‘कहो कैसे हो?’ पानी पी कर बोधा बोला,‘कंपनी छूट रही है. रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं. दांत बज रहे हैं.’
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’
‘और तुम?’
‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है. पसीना आ रहा है.’
‘ना, मैं नहीं पहनता. चार दिन से तुम मेरे लिए...’
‘हां, याद आई. मेरे पास दूसरी गरम जरसी है. आज सबेरे ही आई है. विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें.’ यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा.
‘सच कहते हो?’
‘और नहीं झूठ?’ यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने ज़बरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ. मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी.
आधा घण्टा बीता. इतने में खाई के मुंह से आवाज़ आई,‘सूबेदार हजारा सिंह.’
‘कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!’ कह कर सूबेदार तन कर फ़ौजी सलाम करके सामने हुआ.
‘देखो, इसी समय धावा करना होगा. मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है. उसमें पचास से जियादा जर्मन नहीं हैं. इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है. तीन-चार घुमाव हैं. जहां मोड़ है, वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूं. तुम यहां दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो. खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा.’
‘जो हुक्म.’
चुपचाप सब तैयार हो गए. बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा. तब लहना सिंह ने उसे रोका. लहना सिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की ओर इशारा किया. लहना सिंह समझ कर चुप हो गया. पीछे दस आदमी कौन रहें. इस पर बड़ी हुज्जत हुई. कोई रहना न चाहता था. समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया. लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे. दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा,‘लो तुम भी पियो.’
आंख मारते-मारते लहना सिंह सब समझ गया. मुंह का भाव छिपा कर बोला,‘लाओ साहब.’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुंह देखा. बाल देखे. तब उसका माथा ठनका. लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां उड़ गए और उनकी जगह क़ैदियों से कटे बाल कहां से आ गए?’ शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहना सिंह ने जांचना चाहा. लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे.
‘क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?’
‘लड़ाई ख़त्म होने पर. क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?’
‘नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहां कहां? याद है, पारसाल नक़ली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी ज़िले में शिकार करने गए थे?’
‘हां... हां...’
‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और, ...और आपका ख़ानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक़ पाजी कहीं का. सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी. और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली. ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है. क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएंगे.’
‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया.’
‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फ़ुट के तो होंगे?’
‘हां, लहनासिंह, दो फ़ुट चार इंच के थे. तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
‘पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं,’ कह कर लहना सिंह खन्दक में घुसा. अब उसे संदेह नहीं रहा था. उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए. अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया.
‘कौन? वजीर सिंह?’
‘हां, क्यों लहना? क्या क़यामत आ गई? ज़रा तो आंख लगने दी होती?’
‘होश में आओ. क़यामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है.’
‘क्या? लपटन साहब या तो मारे गए हैं या क़ैद हो गए हैं. उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है. सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा. मैंने देखा है, और बातें की हैं. सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू. और मुझे पीने को सिगरेट दिया है.’
‘तो अब?’
‘अब मारे गए. धोखा है. सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहां खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा. उठो, एक काम करो. पलटन में पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गए होंगे. सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें. खंदक की बात झूठ है. चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ. पत्ता तक न खुड़के. देर मत करो.’
‘हुकुम तो यह है कि यहीं...’
‘ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहना सिंह जो इस वक़्त यहां सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है. मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूं.’
‘पर यहां तो तुम आठ ही हो.’
‘आठ नहीं, दस लाख. एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है. चले जाओ.’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले. तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया. तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहना सिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा. धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहना सिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आंख! मीन गाट्ट’ कहते हुए चित हो गए. लहना सिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबों की तलाशी ली. तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया.
साहब की मूर्च्छा हटी. लहना सिंह हंसकर बोला,‘क्यों, लपटन साहब, मिज़ाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधरी के ज़िले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फ़ुट चार इंच के सींग होते हैं. यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहां से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पांच लफ़्ज़ भी नहीं बोला करते थे.’
लहना सिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी. साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले. लहना सिंह कहता गया,‘चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है. उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए. तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गांव में आया था. औरतों को बच्चे होने का ताबीज बांटता था और बच्चों को दवाई देता था. चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं. वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं. गौ को नहीं मारते. हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे. मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है. डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था. मैंने मुल्ला की दाढ़ी मूंड़ दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो...’
इतने में साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली लगी. इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी.
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आए.
बोधा चिल्लाया,‘क्या है?’
लहना सिंह ने उसे तो यह कह कर सुला दिया कि,‘एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया’ और औरों से सब हाल कह दिया. बंदूकें लेकर सब तैयार हो गए. लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियां कसकर बांधी. घाव मांस में ही था. पट्टियों के कसने से लहू बंद हो गया.
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े. सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका. पर यहां थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर मार रहा था. वह खड़ा था और बाक़ी लेटे हुए थे) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे. थोड़े मिनटों में वे... अचानक आवाज आई,‘वाहे गुरुजी की फतह! वाहेगुरु दी का खालसा!’ और धड़ाधड़ बंदूकों के फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे. ऐन मौक़े पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए. पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया.
एक किलकारी और ‘अकाल सिक्खां दी फौज आई. वाहे गुरु जी दी फतह! वाहे गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष!’ और लड़ाई ख़तम हो गई. तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे. सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गई. लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी. उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया. और बाक़ी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया. किसी को ख़बर नहीं हुई कि लहना को दूसरा घाव, भारी घाव लगा है.
लड़ाई के समय चांद निकल आया था. ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है. और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणो पदेशाचार्य’ कहलाती. वजीरा सिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर उसकी तुरंत बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते. इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी. उन्होंने पीछे टेलीफ़ोन कर दिया था. वहां से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियां चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं. फ़ील्ड अस्पताल नज़दीक था. सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रखी गईं. सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही. बोध सिंह ज्वर से बर्रा रहा था. पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जाएगा. वह गाड़ी में लिटाया गया. लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे. यह देख लहना ने कहा,‘तुम्हें बोधा की क़सम है और सूबेदारनी जी की सौगंध है तो इस गाड़ी में न चले जाओ.’
‘और तुम?’
‘मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना. और जर्मन मुर्दों के लिए भी तो गाड़ियां आती होगीं. मेरा हाल बुरा नहीं है. देखते नहीं मैं खड़ा हूं? वजीरा सिंह मेरे पास है ही.’
‘अच्छा, पर...’
‘बोधा गाड़ी पर लेट गया. भला, आप भी चढ़ आओ. सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना.’
‘और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया.’
गाड़ियां चल पड़ी थीं. सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा,‘तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं. लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना. उसने क्या कहा था?’
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ. मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना.’
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया,‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा है.’
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है. जन्मभर की घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं. सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है. लहना सिंह बारह वर्ष का है. अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है. दहीवाले के यहां, सब्ज़ीवाले के यहां, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है. जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह ‘धत्’ कहकर भाग जाती है. एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा,‘हां, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?’ यह सुनते ही लहना सिंह को दुख हुआ. क्रोध हुआ. क्यों हुआ?
‘वजीरा सिंह पानी पिला दे.’
पच्चीस वर्ष बीत गए. अब लहना सिंह नंबर 77 राइफ़ल्स में जमादार हो गया है. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं. सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुक़दमे की पैरवी करने वह घर गया. वहां रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली. फ़ौरन चले आओ. साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना. साथ चलेंगे.
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था. लहना सिंह सूबेदार के यहां पहुंचा. जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया. बोला,‘लहना सिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है. बुलाती है. जा मिल आ.’
लहना सिंह भीतर पहुंचा. ‘सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वॉर्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं.’ दरवाज़े पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा. असीस सुनी. लहनासिंह चुप.
‘मुझे पहचाना?’
‘नहीं.’
‘...तेरी कुड़माई हो गई? ...धत् ...कल हो गई ...देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू ...अमृतसर में!’
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था.
स्वप्न चल रहा है. सूबेदारनी कह रही है,‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूं. मेरे तो भाग फूट गए. सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक हलाली का मौक़ा आया है. पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है. फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ. उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया.’
सूबेदारनी रोने लगी,‘अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे. आप घोड़ों की लातों पर चले गए थे. और मुझे उठाकर दुकान के तख़्त के पास खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं.’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई. लहना सिंह भी आंसू पोंछता हुआ बाहर आया.
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था.
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है. जब मांगता है, तब पानी पिला देता है. आधे घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला,‘कौन? कीरतसिंह?’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा,‘हां.’
‘भइया, मुझे और ऊंचा कर ले. अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले.’
वजीरा ने वैसा ही किया.
‘हां, अब ठीक है. पानी पिला दे. बस. अब के हाड़ में यह आम ख़ूब फलेगा. चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था.’
वजीरा सिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे. कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा...
फ्रांस और बेल्जियम, 67वीं सूची. मैदान में घावों से मरा नंबर 77 सिख राइफ़ल्स जमादार लहना सिंह.