दिल्ली दरबार दर्पण
जयति राजराजेश्वरी जय युवराज कुमार।
जय नृप-प्रतिनिधि कवि लिटन जय दिल्ली दरबार।
स्नेह भरन तम हरन दोउ प्रजन करन उजियार।
भयो देहली दीप सो यह देहली दरबार॥
सब राजाओं की मुलाक़ातों का हाल अलग-अलग लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि सबके साथ वही मामूली बातें हुईं। सब बड़े-बड़े शासनाधिकारी राजाओं को एक-एक रेशमी झंडा और सोने का तगमा मिला। झंडे अत्यंत सुंदर थे। पीतल के चमकीले मोटे-मोटे डंडों पर राजराजेश्वरी का एक मुकुट बना था और एक पट्टी लगी थी, जिस पर झंडा पाने वाले राजा का नाम लिखा था और फरहरे पर जो डंडे से लटकता था, स्पष्ट रीति पर उनके शस्त्र आदि के चिह्न बने हुए थे। झंडा और तगमा देने के समय श्रीयुत् वायसराय ने हर एक राजा से ये वाक्य कहे—
“मैं श्रीमती महारानी की तरफ़ से यह झंडा ख़ास आपके लिए देता हूँ, जो उनके हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की पदवी लेने का यादगार रहेगा। श्रीमती को भरोसा है, जब कभी यह झंडा खुलेगा, आपको उसे देखते ही केवल इसी बात का ध्यान न होगा कि इंगलिस्तान के राज्य के साथ आपके ख़ैरखाह राजसी घराने का कैसा दृढ़ संबंध है, वरन् यह भी कि सरकार की यही बड़ी भारी इच्छा है कि आपके कुल को प्रतापी, प्रारब्धी और अचल देखे। मैं श्रीमती महारानी हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की आज्ञानुसार आपको यह तगमा भी पहनाता हूँ। ईश्वर करे आप इसे बहुत दिन तक पहिनें और आपके बाद यह आपके कुल में बहुत दिन तक रहकर, इस शुभ दिन की याद दिलावे जो इस पर छपा है।”
शेष राजाओं को उनके पद के अनुसार सोने या चाँदी के केवल तगमे ही मिले। किलात के खाँ को भी झंडा नहीं मिला, पर उन्हें एक हाथी, जिस पर 4000 की लागत का हौदा था, जड़ाऊ गहने, घड़ी, कार, चोबी, कपड़े, कमख़ाब के थान वग़ैरह सब मिलाकर 25000 की चीजें तुहफ़े में मिलीं। यह बात किसी दूसरे के लिए नहीं हुई थी। इसके सिवाय जो सरदार उनके साथ आए थे, उन्हें भी किश्तियों में लगाकर दस हज़ार रुपए की चीज़ें दी गईं। प्रायः लोगों को इस बात के जानने का उत्साह होगा कि खाँ का रूप और वस्त्र कैसा था।
निस्संदेह जो कपड़ा खाँ पहने थे, वह उनके साथियों से बहुत अच्छा था, तो भी उनकी या उनके किसी साथी की शोभा उन मुग़लों से बढ़कर न थी जो बाज़ार में मेवा लिए घूमा करते हैं। हाँ, कुछ फ़र्क़ था तो इतना था कि लंबी घनी दाड़ी के कारण खाँ साहिब का चेहरा बड़ा भयानक लगता था। इन्हें झंडा न मिलने का कारण यह समझना चाहिए कि यह बिलकुल स्वतंत्र हैं। इन्हें आने और जाने के समय श्रीयुत् वायसराय गलीचे के किनारे तक पहुँचा गए थे, पर बैठने के लिए इन्हें भी वायसराय के चबूतरे के नीचे वही कुर्सी मिली थी, जो और राजाओं को। खाँ साहिब के मिज़ाज में रूखापन बहुत है। एक प्रतिष्ठित बंगाली इनके डेरे पर मुलाक़ात के लिए गए थे। खाँ ने पूछा, क्यों आए हो? बाबू साहिब ने कहा, आपकी मुलाक़ात को। इस पर खाँ बोले कि अच्छा, आप हमको देख चुके और हम आपको, अब जाइए।
बहुत से छोटे-छोटे राजाओं की बोलचाल का ढंग भी, जिस समय वे वायसराय से मिलने आए थे, संक्षेप के साथ लिखने के योग्य है। कोई तो दूर ही से हाथ जोड़ आए, और दो एक ऐसे थे कि जब एडिकांग के बदन झुका कर इशारा करने पर भी उन्होंने सलाम न किया तो एडिकांग ने पीठ पकड़कर उन्हें धीरे से झुका दिया। कोई बैठकर उठना जानते ही न थे, यहाँ तक कि एडिकांग को 'उठो' कहना पड़ता था। कोई झंडा, तगमा, सलामी और खिताब पाने पर भी एक शब्द धन्यवाद का नहीं बोल सके और कोई बिचारे इनमें से दो ही एक पदार्थ पाकर ऐसे प्रसन्न हुए कि श्रीयुत् वायसराय पर अपनी जान और माल निछावर करने को तैयार थे। सबसे बढ़कर बुद्धिमान हमें एक महात्मा दिखाई पड़े जिनसे वायसराय ने कहा कि आपका नगर तो तीर्थ गिना जाता है, पर हम आशा करते हैं कि आप इस समय दिल्ली को भी तीर्थ ही के समान पाते हैं। इसके जवाब में वह बेधड़क बोल उठे कि यह जगह तो सब तीर्थों से बढ़कर है, जहाँ आप हमारे 'ख़ुदा' मौजूद हैं। नवाब लुहारू की भी अँग्रेज़ी में बातचीत सुनकर ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्हें हँसी न आई हो। नवाब साहिब बोलते तो बड़े धड़ाके से थे, पर उसी के साथ क़ायदे और मुहावरे के भी ख़ूब हाथ पाँव तोड़ते थे कितने वाक्य ऐसे थे जिनके कुछ अर्थ ही नहीं हो सकते, पर नवाब साहिब को अपनी अँग्रेज़ी का ऐसा कुछ विश्वास था कि अपने मुँह से केवल अपने ही को नहीं वरन् अपने दोनों लड़कों को भी अँग्रेज़ी, अरबी, ज्योतिष, गणित आदि ईश्वर जाने कितनी विद्याओं का पंडित बखान गए। नवाब साहिब ने कहा कि हमने और रईसों की तरह अपनी उमर खेल कूद में नहीं गँवाई, वरन् लड़कपन ही से विद्या के उपार्जन में चित्त लगाया और पूरे पंडित तथा कवि हुए। इसके सिवाय नवाब साहिब ने बहुत से राजभक्ति के वाक्य भी कहे। वायसराय ने उत्तर दिया कि हम आपकी अँग्रेज़ी विद्या पर इतना मुबारकबाद नहीं देते जितना अँग्रेज़ों के समान आपका चित्त होने के लिए। फिर नवाब साहिब ने कहा कि मैंने इस भारी अवसर के वर्णन में अरबी और फ़ारसी का एक पद्य ग्रंथ बनाया है, जिसे मैं चाहता हूँ कि किसी समय श्रीयुत् को सुनाऊँ। श्रीयुत् ने जवाब दिया कि मुझे भी कविता का बड़ा अनुराग है और मैं आप-सा एक भाई-कवि (Brother-Poet) देखकर बहुत प्रसन्न हुआ तथा आपकी कविता सुनने के लिए कोई अवकाश का समय निकालूँगा।
29 तारीख़ को सबके अंत में महारानी तंजौर वायसराय से मुलाक़ात को आईं। ये तास का सब वस्त्र पहने थीं और मुँह पर तास का नकाब पड़ा हुआ था। इसके सिवाय उनके हाथ पाँव दस्ताने और मोजे से ऐसे ढके थे कि सबके जी में उन्हें देखने की इच्छा ही रह गई। महारानी के साथ में उनके पति राजा सखाराम साहिब और दो लड़कों के सिवाय उनकी अनुवादक मिसेज फर्थ भी थीं महारानी ने पहले आकर वायसराय से हाथ मिलाया और अपनी कुर्सी पर बैठ गई। श्रीयुत् वायसराय ने उनके दिल्ली आने पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की और पूछा कि आप को इतनी भारी यात्रा में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ? महारानी अपनी भाषा की बोलचाल में बेगम भूपाल की तरह चतुर नहीं थीं, इसलिए ज़्यादा बातचीत मिसेज फर्थ से हुई, जिन्हें श्रीयुत् ने प्रसन्न होकर 'मनभावनी अनुवादक' कहा। वायसराय की किसी बात के उत्तर में एक बार महारानी के मुँह से 'यस' निकल गया, जिस पर श्रीयुत् ने बड़ा हर्ष प्रकट किया कि महारानी अँग्रेज़ी भी बोल सकती हैं, पर अनुवादक मेम साहिब ने कहा कि वे अँग्रेज़ी में दो चार शब्द से अधिक नहीं जानतीं।
इस वर्णन के अंत में यह लिखना आवश्यक है कि श्रीयुत् वायसराय लोगों से इतनी मनोहर रीति पर बातचीत करते थे, जिससे सब मगन हो जाते थे और ऐसा समझते थे कि वायसराय ने हमारा सबसे बढ़कर आदर सत्कार किया। भेंट होने के समय श्रीयुत् ने हर एक से कहा कि आप से दोस्ती करके हम अत्यंत प्रसन्न हुए और तगमा पहिनाने के समय भी बड़े स्नेह से उनकी पीठ पर हाथ रखकर बात की।
एक जनवरी को दरबार का महोत्सव हुआ यह दरबार, जो हिंदुस्तान के इतिहास में सदा प्रसिद्ध रहेगा, एक बड़े भारी मैदान में नगर से पाँच मील पर हुआ था। बीच में श्रीयुत् वायसराय का षट्कोण चबूतरा था, जिसकी गुंबदनुमा छत पर लाल कपड़ा चढ़ा और सुनहला रूपहला तथा शीशे का काम बना था। कंगूरे के ऊपर कलसे की जगह श्रीमती राजराजेश्वरी का सुनहला मुकुट लगा था। इस चबूतरे पर श्रीयुत् अपने राजसिंहासन में सुशोभित हुए थे। उनके बगल में एक कुर्सी पर लेडी साहिब बैठीं थीं और ठीक पीछे ख़ास लोग हाथों में चैंबर लिए और श्रीयुत् के ऊपर कारचोबी छत्र लगाए खड़े थे। वायसराय के सिंहासन के दोनों तरफ़ दो पेज (दामन वरदान), जिनमें एक श्रीयुत् महाराज जंबू का अत्यंत सुंदर सबसे छोटा राजकुमार और दूसरा कर्नल वर्ग का पुत्र था, खड़े थे और उनके दाएँ, बाएँ तथा पीछे मुसाहिब और सेक्रेटरी लोग अपने-अपने स्थान पर खड़े थे। वायसराय के इस चबूतरे के ठीक सामने कुछ दूर पर उससे नीच एक अर्द्धचंद्राकार चबूतरा था। जिस पर शासनाधिकारी राजा लोग और उनके मुसाहिब, मदरास और बंबई के गवर्नर, पंजाब, बंगाल और पश्चिमोत्तर देश के लेफ्टिनेंट गवर्नर और हिंदुस्तान के कमांडर इन चीफ़ अपने-अपने अधिकारियों समेत सुशोभित थे। इस चबूतरे की छत बहुत सुंदर नीले रंग के साटन की थी, जिसके आगे लहरियादार छज्जा बहुत सजीला लगता था। लहरिए के बीच-बीच में सुनहले काम के चाँद तारे बने थे। राजाओं की कुर्सियाँ भी नीली साटन से मढ़ी थीं और हर एक के सामने वे झंडे गड़े थे, जो उन्हें वायसराय ने दिए थे और पीछे अधिकारियों की कुर्सियाँ लगी थीं, जिन पर नीली साटन चढ़ी थी। हर एक राजा के साथ एक-एक पोलिटिकल अफ़सर भी था। इनके सिवाय गवर्नमेंट के भारी-भारी अधिकारी भी यहीं बैठे थे। राजा लोग अपने-अपने प्रांतों के अनुसार बैठाए गए थे, जिससे ऊपर नीचे बैठने का बखेड़ा बिलकुल निकल गया था। सब मिलाकर तिरसठ शासनाधिकारी राजाओं को इस चबूतरे पर जगह मिली थी। जिनके नाम नीचे लिखे हैं—
महाराज अजयगढ़, बड़ौदा, बिजावर, भरतपुर, चरखारी, दतिया, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, जंबू, जोधपुर, करौली, किशुनगढ़, पन्ना, मैसूर, रीवां, उछ, महाराना उदयपुर, महाराव राजा अलवर, बूँदी, महाराज राना झालावाड़, राना धौलपुर, राजा बिलासपुर, बमरा, बिरोंदा, चबा, छतरपुर, देवास, धार, फरीदकोट, जींद, खरोंद, कूचविहार, मंडी, नामा, नाहन, राजपीपला, रतलाम, समथर, सुकेत, टिहरी, राव जिगनी, टोरी, नवाब टोंक, पटौदी, मलेरकोटला, लुहारू, जूनागढ़, जौरा, दुलाना, बहावलपुर जागीरदार, अलीपुरा, बेगम भूपाल, निज़ाम हैदराबाद, सरदार कलसिया, ठाकुर साहिब भावनगर, मुर्वी, पिपलोदा, जागीरदार पालदेव, मीर खैरपुर, महंत कोंदका, नंदगाँव और जाम नवानगर।
वायसराय के सिंहासन के पीछे, परंतु राजसी चबूतरे की अपेक्षा उससे अधिक पास, धनुषखंड के आकार की दो श्रेणियाँ चबूतरों की और बनी थीं, जो दस भागों में बाँट दी गई थीं। इन पर आगे की तरफ़ थोड़ी-सी कुर्सियाँ और पीछे सीढ़ीनुमा बेंचें लगी थीं, जिन पर नीला कपड़ा मढ़ा था यहाँ ऐसे राजाओं को जिन्हें शासन का अधिकार नहीं है और दूसरे सरदारों, रईसों, समाचारपत्रों के संपादकों और यूरोपियन तथा हिंदुस्तानी अधिकारियों को, जो गवर्नमेंट के नेवते में आए थे या जिन्हें तमाशा देखने के लिए टिकट मिले थे, बैठने की जगह दी गई थी। ये 3000 के लगभग होंगे। किलात के खाँ, गोआ के गवर्नर जनरल, विदेशी राजदूत, बाहरी राज्यों के प्रतिनिधि समाज और अन्य देश संबंधी कांसल लोगों की कुर्सियाँ भी श्रीयुत् वायसराय के पीछे सरदारों और रईसों की चौकियों के आगे लगी थीं।
दरबार की जगह दक्खिन तरफ़ 15000 से ज़्यादा सरकारी फ़ौज हथियार बाँधे लैस खड़ी थी और उत्तर तरफ़ राजा लोगों की सजी पलटनें भाँति-भाँति की वरदी पहने और चित्र-विचित्र शस्त्र धारण किए परा बाँधे खड़ी थीं। इन सब की शोभा देखने से काम रखती थी। इसके सिवाय राजा लोगों के हाथियों के परे जिन पर सुनहली अमारियाँ कसी थीं और कारचोबी झूलें पड़ी थीं, तोपों की कतार, सवारों की नंगी तलवारों और भालों की चमक, फरहरों का उड़ना, और दो लाख के लगभग तमाशा देखने वालों की भीड़, जो मैदान में डटी थी, ऐसा समा दिखलाती थी, जिसे देख जो जहाँ था, वहीं हक्का-बक्का ही खड़ा रह जाता था। वायसराय के सिंहासन के दोनों तरफ़ हाइलैंडर लोगों को गार्ड ऑव ऑनर और बाजे वाले थे। शासनाधिकारी राजाओं के चबूतरे पर जाने के जो रास्ते बाहर की तरफ़ थे उनके दोनों ओर भी गार्ड ऑव ऑनर खड़े थे। पौने बारह बजे तक सब दरबारी लोग अपनी-अपनी जगहों पर आ गए थे। ठीक बारह बजे श्रीयुत् वायसराय की सवारी पहुँची और धनुषखंड आकार के चबूतरों की श्रेणियों के पास एक छोटे से खंभे के दरवाज़े पर ठहरी सवारी पहुँचते ही बिलकुल फ़ौज ने शस्त्रों से सलामी उतारी पर तोपें नहीं छोड़ी गई। खंभे में श्रीयुत् ने जाकर स्टार ऑव इंडिया के परम प्रतिष्ठित पद के ग्रांड मास्टर का वस्त्र धारण किया। यहाँ से श्रीयुत् राजसी छत्र के तले अपने राजसिंहासन की ओर बढ़े। श्री लेडी लिटन श्रीयुत् के साथ थीं और दोनों दामनबरदार बालक, जिनका हाल ऊपर लिखा गया है, पीछे दो तरफ़ से दामन उठाए हुए थे। श्रीयुत् के चलते ही बंदीजन (हेरल्ड लोगों) ने अपनी तुरहियाँ एक साथ बहुत मधुर रीति पर बजाई और फ़ौजी बाजे से ग्रांड मार्च बजने लगा। जब श्रीयुत् राजसिंहासन वाले मनोहर चबूतरे पर चढ़ने लगे तो ग्रांडमार्च का बाजा बंद हो गया और नेशनल एंथेम अर्थात् (गौड सेव दि क्वीन-ईश्वर महारानी को चिरंजीवी रखे) का बाजा बजने लगा और गार्डस ऑव ऑनर ने प्रतिष्ठा के लिए अपने शस्त्र झुका दिए। ज्यों ही श्रीयुत् राजसिंहासन पर सुशोभित हुए, बाजे बंद हो गए और सब राजा महाराजा, जो वायसराय के आने के समय खड़े हो गए थे, बैठ गए। इसके पीछे श्रीयुत् ने मुख्य बंदी (चीफ़ हेरल्ड) को आज्ञा की कि श्रीमती महारानी के राजराजेश्वरी की पदवी लेने के विषय में अँग्रेज़ी में राजाज्ञापत्र पढ़ो। यह आज्ञा होते ही बंदीजनों ने, जो दो पाँती में राज्यसिंहासन के चबूतरे के नीचे खड़े थे, तुरही बजाई और उसके बंद होने पर मुख्य बंदी ने नीचे की सीढ़ी पर खड़े होकर बड़े ऊँचे स्वर से राजाज्ञापत्र पढ़ा। जिसका उल्था यह है—
महारानी विक्टोरिया—ऐसी अवस्था में कि हाल में पार्लियामेंट की जो सभा हुई उसमें एक ऐक्ट पास हुआ है, जिसके द्वारा परम कृपालु महारानी को यह अधिकार मिला है कि यूनाइटेड किंगडम और उसके अधीन देशों की राजसंबंधी पदवियों और प्रशस्तियों में श्रीमती जो कुछ चाहें बढ़ा लें और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि ग्रेटब्रिटेन और आयरलैंड के एक में मिल जाने के लिए जो नियम बने थे। उनके अनुसार भी यह अधिकार मिला था कि यूनाइटेड किंगडम और उसके अधीन देशों की राजसंबंधी पदवी और प्रशस्ति इस संयोग के पीछे वही होगी जो श्रीमती ऐसे राजाज्ञापत्र के द्वारा प्रकाशित करेंगी, जिस पर राज की मुहर छपी रहे और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि ऊपर लिखे हुए नियम और उस राजाज्ञापत्र के अनुसार जो 1 जनवरी सन् 1801 को राजसी मुहर होने के बाद प्रकाशित किया गया, हमने यह पदवी ली “विक्टोरिया ईश्वर की कृपा से ग्रेटब्रिटेन और आयरलैंड के संयुक्तराज्य की महारानी स्वधर्मरक्षिणी”, और इस ऐक्ट में यह भी वर्णन है कि उस नियम के अनुसार जो हिंदुस्तान के उत्तम शासन के हेतु बनाया गया था। हिंदुस्तान के राजा का अधिकार जो उस समय तक हमारी ओर से ईस्ट इंडिया कंपनी को सपुर्द था, अब हमारे निज अधिकार में आ गया और हमारे नाम से उसका शासन होगा। इस नए अधिकार की कि हम कोई विशेष पदवी लें और इन सब वर्णनों के अनंतर इस ऐक्ट में यह नियम सिद्ध किया गया है कि ऊपर लिखी हुई बात के स्मरण निमित्त हमने अपने मुहर किए हुए राजाज्ञापत्र के द्वारा हिंदुस्तान के शासन का अधिकार अपने हाथ में ले लिया, हमको यह योग्यता होगी कि यूनाइटेड किंगडम और उसके अधीन देशों की राजसंबंधी पदवियों और प्रशस्तियों में जो कुछ उचित समझें बढ़ा लें। इसलिए अब हम अपने प्रीवी काउंसिल की सम्मति से योग्य समझकर यह प्रचलित और प्रकाशित करते हैं कि आगे को, जहाँ सुगमता के साथ हो सके, सब अवसरों में और संपूर्ण राजपत्रों पर जिनमें हमारी पदवियाँ और प्रशस्तियाँ लिखी जाती हैं, सिवाय सनद, कमीशन, अधिकारदायक पत्र, दानपत्र, आज्ञापत्र, नियोगपत्र, और इसी प्रकार के दूसरे पत्रों के, जिनका प्रचार यूनाइटेड किंगडम के बाहर नहीं है, यूनाइटेड किंगडम उसके अधीन देशों की राजसंबंधी पदवियों में नीचे लिखा हुआ मिला दिया जाए, अर्थात् लैटिन भाषा में 'इंडिई एम्परेट्रिक्स' (हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी) और अँग्रेज़ी भाषा में 'एम्प्रेस ऑव इंडिया।' हमारी यह इच्छा और प्रसन्नता है कि उन राजसंबंधी पत्रों में जिनका वर्णन ऊपर हुआ है यह नई पदवी न लिखी जाए। हमारी यह भी इच्छा और प्रसन्नता है कि सोने चाँदी और ताँबे के सब सिक्के, जो आज कल यूनाइटेड किंगडम में प्रचलित हैं और नीतिविरुद्ध नहीं गिने जाते और इसी प्रकार तथा आकार के दूसरे सिक्के जो हमारी आज्ञा से अब छापे जाएँगे, हमारी नई पदवी लेने से भी नीतिविरुद्ध न समझे जाएँगे और जो सिक्के यूनाइटेड किंगडम के अधीन देशों में छापे जाएँगे और जिनका वर्णन राजाज्ञापत्र में उन जगहों के नियमित और प्रचलित द्रव्य करके किया गया है और जिन पर हमारी संपूर्ण पदवियाँ या प्रशस्तियाँ या उनका कोई भाग रहे, और वे सिक्के जो राजाज्ञापत्र के अनुसार अब छापे और चलाए जाएँगे इस नई पदवी के बिना भी उस देश के नियमित और प्रचलित द्रव्य समझे जाएँगे, जब तक कि इस विषय में हमारी कोई दूसरी प्रसन्नता न प्रगट की जाएगी। हमारी विंडसर की कचहरी से 28 अप्रैल को एक हज़ार आठ सौ छिहत्तर के सन् में हमारे राज के उनतालीसवें बरस में प्रसिद्ध किया गया।
ईश्वर महारानी को चिरंजीव रखे!
जब चीफ़ हेरल्ड राजाज्ञापत्र को अँग्रेज़ी में पढ़ चुका तो हेरल्ड लोगों ने फिर तुरही बजाई, इसके पीछे फॉरेन सेक्रेटरी ने उर्दू में तर्जुमा पढ़ा। इसके समाप्त होते ही बादशाही झंडा खड़ा किया गया और तोपखाने से, जो दरबार के मैदान में मौजूद था। 101 तोपों की सलामी हुई। चौंतीस-चौंतीस सलामी होने के बाद बंदूकों की बाढ़ें दगीं और 101 सलामियाँ तोपों से हो चुकीं, तब फिर बाढ़ छूटी और नेशनल ऐंथेंम का बाजा बजने लगा। इसके अनंतर श्रीयुत् वायसराय समाज को एड्रेस करने के अभिप्राय से खड़े हुए। श्रीयुत् वायसराय के खड़े होते ही सामने के चबूतरे पर जितने बड़े-बड़े राजा लोग और गवर्नर आदि अधिकारी थे, खड़े हो गए पर श्रीयुत् ने बड़े आदर के साथ दोनों हाथों से हिंदुस्तानी रीति पर कई बार सलाम करके सबसे बैठ जाने का इशारा किया। यह काम श्रीयुत् का, जिससे हम लोगों की छाती दूनी हो गई, पायोनीयर सरीखे अँग्रेज़ी के संपादकों को बहुत बुरा लगा जिनकी समझ में वायसराय का हिंदुस्तानी तरह पर सलाम करना बड़े हेठाई और लज्जा की बात थी। ख़ैर, यह तो इन अँग्रेज़ी अख़बारवालों की मामूली बातें हैं। श्रीयुत् वायसराय ने जो उत्तम ऐड्रेस पड़ा उसका तर्जुमा हम नीचे लिखते हैं—
सन् 1858 ईसवी की नवंबर को श्रीमती महारानी की ओर से एक इश्तिहार हुआ था, जिसमें हिंदुस्तान के रईसों और प्रजा को श्रीमती की कृपा का विश्वास कराया गया था, जिसको उस दिन से आज तक वे लोग राजसंबंधी बातों में बड़ा अनमोल प्रमाण समझते हैं।
वह प्रतिज्ञा, एक ऐसी महारानी की ओर से हुई थीं, जिन्होंने आज तक अपनी बात को कभी नहीं तोड़ा, इसलिए हमें अपने मुँह से फिर उनका निश्चय करना व्यर्थ है। 18 बरस की लगातार उन्नति ही उनको सत्य करती है और यह भारी समागम भी उनके पूरे उतरने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस राज के रईस और प्रजा जो अपनी-अपनी परंपरा की प्रतिष्ठा निर्विघ्न भोगते रहे और जिनकी उचित लाभों की उन्नति के यत्न में सदा रक्षा होती रही, उनके वास्ते सरकार की पिछले समय की उदारता और न्याय आगे के लिए पक्की जमानत हो गई है। हम लोग इस समय श्रीमती महारानी के राजराजेश्वरी की पदवी लेने का समाचार प्रसिद्ध करने के लिए इकट्ठे हुए हैं, और यहाँ महारानी के प्रतिनिधि होने की योग्यता से मुझे आवश्यक है कि श्रीमती के उस कृपायुक्त अभिप्राय को सब पर प्रकट करूँ जिसके कारण श्रीमती ने अपने परंपरा की पदवी और प्रशस्ति में एक पद और बढ़ाया। पृथ्वी पर श्रीमती महारानी के अधिकार में जितने देश हैं—जिनका विस्तार भूगोल के सातवें भाग से कम नहीं है और जिनमें तीस करोड़ आदमी बसते हैं उनमें से इस बड़े और प्राचीन राज के समान श्रीमती किसी दूसरे देश पर कृपादृष्टि नहीं रखतीं।
सब जगह और सदा इंगलिस्तान के बादशाहों की सेवा में प्रवीण और परिश्रमी सेवक रहते आए हैं, परंतु उनसे बढ़कर कोई पुरुषार्थी नहीं हुए, जिनकी बुद्धि और वीरता से हिंदुस्तान का राज सरकार के हाथ लगा और बराबर अधिकार में बना रहा। इस कठिन काम में जिसमें श्रीमती की अँग्रेज़ी और देशी प्रजा दोनों ने मिलकर भलीभाँति परिश्रम किया है, श्रीमती के बड़े-बड़े स्नेही और सहायक राजाओं ने भी शुभचिंतन के साथ सहायता दी है, जिनकी सेना ने लड़ाई की मेहनत और जीत में श्रीमती की सेना का साथ दिया है, जिनकी बुद्धिपूर्वक सत्यशीलता के कारण मेल के लाभ बने रहे और फैलते गए हैं। जिनका यहाँ आज वर्तमान होना, जो कि श्रीमती के राजराजेश्वरी की पदवी लेने का शुभ दिन है, इस बात का प्रमाण है कि वे श्रीमती के अधिकार की उत्तमता में विश्वास रखते हैं और उनके राज में एका बने रहने में अपना भला समझते हैं।
श्रीमती महारानी इस राज को, जिसे उनके पुरखों ने प्राप्त किया और श्रीमती ने दृढ़ किया, एक बड़ा भारी पैतृक धन समझती हैं, जो रक्षा करने और अपने वंश के लिए संपूर्ण छोड़ने के योग्य है और उस पर अधिकार रखने से अपने ऊपर यह कर्तव्य जानती हैं कि अपने बड़े अधिकार को इस देश की प्रजा की भलाई के लिए यहाँ के रईसों के हकों पर पूरा-पूरा ध्यान रखकर काम में लावें। इसलिए श्रीमती का यह राजसी अभिप्राय है कि अपनी पदवियों पर एक और ऐसी पदवी बढ़ावें, जो आगे सदा को हिंदुस्तान के सब रईसों और प्रजा के लिए इस बात का चिह्न हो कि श्रीमती के और उनके लाभ एक हैं और महारानी की ओर राजभक्ति और शुभचिंतन उन्हें उचित है।
वे राजसी घरानों की श्रेणियाँ जिनका अधिकार बदल देने और देश की उन्नति करने के लिए ईश्वर ने अँग्रेज़ी राज को यहाँ जमाया, प्रायः अच्छे और बड़े बादशाहों से ख़ाली न थीं। परंतु उनके उत्तराधिकारियों के राज्यप्रबंध से उनके राज्य के देशों में मेल न बना रह सका। सदा आपस में झगड़ा होता रहा और अँधेर मचा रहा। निर्बल लोग बली के शिकार थे और बलवान अपने मद के इस प्रकार आपस की काट मार और भीतरी झगड़ों के कारण जड़ से हिलकर और निर्जीव होकर तैमूरलंग का भारी घराना अंत को मिट्टी में मिल गया और उसके नाश होने का कारण यह था कि उससे पश्चिम के देशों की उन्नति न हो सकी।
आजकल ऐसी राजनीति के कारण जिससे सब जात और सब धर्म के लोगों की समान रक्षा होती है, श्रीमती की हर एक प्रजा अपना समय निर्विघ्न सुख से काट सकती हैं। सरकार के समभाव के कारण हर आदमी बिना किसी रोक-टोक के अपने धर्म के नियमों और रीतियों को बरत सकता है। राजराजेश्वरी का अधिकार लेने से श्रीमती का अभिप्राय किसी को मिटाने या दबाने का नहीं है, वरन् रक्षा करने और अच्छी राह बतलाने का। सारे देश की शीघ्र उन्नति और उसके सब प्रांतों की दिन पर दिन वृद्धि होने से अँग्रेज़ी राज के फल सब जगह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं।
हे अँग्रेज़ी राज के कार्यकर्ता और सच्चे अधिकारी लोग! यह आप ही लोगों के लगातार परिश्रम का गुण है कि ऐसे-ऐसे फल प्राप्त हैं और सबके पहले आप ही लोगों पर मैं इस समय श्रीमती की ओर से उनकी कृतज्ञता और विश्वास को प्रकट करता हूँ। आप लोगों ने इस राज की भलाई के लिए उन प्रतिष्ठित लोगों से जो आप के पहले कामों पर नियत थे, किसी प्रकार कम कष्ट नहीं उठाया है और आप लोग बराबर ऐसे साहस, परिश्रम और सच्चाई के साथ अपने तन, मन को अर्पण करके काम करते रहे जिससे बढ़कर कोई दृष्टांत इतिहासों में न मिलेगा।
कीर्ति के द्वार सबके लिए नहीं खुले हैं परंतु भलाई करने का अवसर सब किसी को, जो उसकी खोज रखता हो मिल सकता है। यह बात प्रायः कोई गवर्नमेंट नहीं कर सकती कि अपने नौकरों के पदों को जल्द-जल्द बढ़ाती जाए, परंतु मुझे विश्वास है कि अँग्रेज़ी सरकार की नौकरी में 'कर्त्तव्य का ध्यान' और 'स्वामी की सेवा में तन, मन को अर्पण कर देना' ये दोनों बातें 'निज प्रतिष्ठा' और 'लाभ' की अपेक्षा सदा बढ़कर समझी जाएँगी। यह बात सदा से होती आई है और होती रहेगी कि इस देश के प्रबंध के बहुत से भारी-भारी और लाभदायक काम प्रायः बड़े-बड़े प्रतिष्ठित अधिकारियों ने नहीं किए हैं वरन् जिले के उन अफ़सरों ने जिनकी धैर्यपूर्वक चतुराई और साहस पर संपूर्ण प्रबंध का अच्छा उतरना सब प्रकार अधीन है।
श्रीमती की ओर से राजकाज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियों के विषय में मैं जितनी गुणग्राहकता और प्रशंसा प्रगट करूँ थोड़ी है, क्योंकि ये तमाम हिंदुस्तान में ऐसा सूक्ष्म और कठिन कामों को अत्यंत उत्तम रीति पर करते रहे हैं और करते हैं, जिनसे बढ़कर सूक्ष्म और कठिन काम सरकार अधिक से अधिक विश्वासपात्र मनुष्य को नहीं सौंप सकती। हे राजकाज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियो! जो कमसिनी में इतने भारी जिम्मे के कामों पर मुकर्रर होकर बड़े परिश्रम चाहने वाले नियमों पर तन, मन से, चलते हों और जो निज पौरुष से उन जातियों के बीच राज्यप्रबंध के कठिन काम को करते हों, जिनकी भाषा, धर्म और रीतें आप लोगों से भिन्न हैं—मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि अपने-अपने कठिन कामों को दृढ़, परंतु कोमल रीति पर करने के समय आपको इस बात का भरोसा रहे कि जिस समय आप लोग अपने जाति की बड़ी कीर्ति को थामे हुए हैं और अपने धर्म के दयाशील आज्ञाओं को मानते हैं, उसी के साथ आप इस देश के सब जाति और धर्म के लोगों पर उत्तम प्रबंध के अनमोल लाभों को फैलाते हैं।
उस पश्चिम की सभ्यता के नियमों की बुद्धिमानी के साथ फैलाने के लिए, जिससे इस भारी राज का धन बराबर बढ़ता गया, हिंदुस्तान पर केवल सरकारी अधिकारियों का एहसान नहीं है, वरन् यदि मैं इस अवसर पर श्रीमती की इस यूरोपियन प्रजा जो हिंदुस्तान में रहती है, पर सरकारी नौकर नहीं है, इस बात का विश्वास कराऊँ कि श्रीमती उन लोगों के केवल उस राजभक्ति ही की गुणग्राहकता नहीं करतीं, जो वे लोग उनके और उनके सिंहासन के साथ रखते हैं, किंतु उन लाभों को भी जानती और मानती हैं, जो उन लोगों के परिश्रम से हिंदुस्तान को प्राप्त होते हैं, तो मैं अपनी पूज्य स्वामिनी के विचारों को अच्छी तरह न वर्णन करने का दोषी ठहरूँगा।
इस अभिप्राय से कि अपने राज के इस उत्तम भाग को प्रजा को सरकार की सेवा या निज की योग्यता के लिए गुणग्राहकता दिखाने का विशेष अवसर मिले श्रीमती ने कृपापूर्वक केवल स्टार ऑफ इंडिया के परम प्रतिष्ठित पद वालों और आर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया के अधिकारियों की संख्या ही में थोड़ी-सी बढ़ती नहीं की, किंतु इसी हेतु एक बिलकुल नया पद और नियत किया है जो 'आर्डर ऑफ दि इंडियन एंपायर' कहलाएगा।
हे हिंदुस्तान की सेना के अँग्रेज़ी और देशी अफ़सर और सिपाहियों! आप लोगों ने जो भारी-भारी काम बहादुरी के साथ लड़ भिड़कर सब अवसरों पर किए और इस प्रकार श्रीमती की सेना की युद्धकीर्ति को थामे रहे, उसका श्रीमती अभिमान के साथ स्मरण करती हैं। श्रीमती इस बात पर भरोसा रखकर कि आगे को भी सब अवसरों पर आप लोग उसी तरह मिलजुल कर अपने भारी कर्तव्य को सच्चाई के साथ पूरा करेंगे, अपने हिंदुस्तानी राज में मेल और अमन चैन बनाए रखने के विश्वास का काम आप लोगों ही को सुपुर्द करती हैं।
हे वालंटियर सिपाहियों! आप लोगों के राजभक्तिपूर्ण और सफ़ल यत्न जो इस विषय में हुए हैं कि यदि प्रयोजन पड़े तो आप सरकार की नियत सेना के साथ मिलकर सहायता करें, इस शुभ अवसर पर हृदय से धन्यवाद पाने के योग्य हैं।
हे इस देश के सरदार और रईस लोग! जिनकी राजभक्ति इस राजा के बल को पुष्ट करने वाली है और जिनकी उन्नति इसके प्रताप के कारण है। श्रीमती महारानी आपको यह विश्वास करके धन्यवाद देती हैं कि यदि इस राज के लाभों में कोई विघ्न डाले या उन्हें किसी तरह का भय हो तो आप लोग उसकी रक्षा के लिए तैयार हो जाएँगे। मैं श्रीमती की ओर से और उनके नाम से दिल्ली आने के लिए आप लोगों का जी से स्वागत करता और इस बड़े अवसर पर आप लोगों के इकट्ठे होने को इंगलिस्तान के राजसिंहासन की ओर आप लोगों की उस राजभक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण गिनता हूँ, जो श्रीमान प्रिंस ऑफ वेल्स के इस देश में आने के समय आप लोगों ने दृढ़ रीति पर प्रकट की थी। श्रीमती महारानी आपके स्वार्थ को अपना स्वार्थ समझती हैं और अँग्रेज़ी राज के साथ उसके कर देने वाले और स्नेही राजा लोगों का जो शुभ संयोग से संबंध है, उसके विश्वास को दृढ़ करने और उसके मेल-जोल को अचल करने ही के अभिप्राय से श्रीमती ने अनुग्रह करके वह राजसी पदवी ली है, जिसे आज हम लोग प्रसिद्ध करते हैं। हे हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी के देसी प्रजा लोग! इस राज की वर्तमान दशा और उसके नित्य के लाभ के लिए आवश्यक है कि उनके प्रबंध को जाँचने और सुधारने का मुख्य अधिकार ऐसे अँग्रेजी अफ़सरों को सुपुर्द किया जाए, जिन्होंने राज काज के उन तत्वों को भलीभाँति सीखा है, जिनका बरताव राजराजेश्वरी के अधिकार स्थिर रहने के लिए आवश्यक है। इन्हीं राजनीति जानने वाले लोगों के उत्तम प्रयत्नों से हिंदुस्तान सभ्यता में दिन-दिन बढ़ता जाता है और यही उसके राज काज संबंधी महत्त्व का हेतु तथा नित्य बढ़ने वाली शक्ति का गुप्त कारण है। इन्हीं लोगों के द्वारा पश्चिम देश का शिल्प, सभ्यता और विज्ञान, (जिनके कारण आज दिन यूरोप लड़ाई और मेल दोनों में सबसे चढ़-बढ़कर है) बहुत दिनों तक पूरब के देशों में यहाँ वालों के उपकार के लिए प्रचलित रहेगा।
परंतु हे हिंदुस्तानी लोग! आप चाहे जिस जाति या मत के हों यह निश्चय रखिए कि आप इस देश के प्रबंध में योग्यता के अनुसार अँग्रेज़ों के साथ भलीभाँति काम पाने के योग्य हैं और ऐसा होना पूरा न्याय भी है। इंगलिस्तान तथा हिंदुस्तान के बड़े राजनीति जानने वाले लोग और महारानी की राजसी पार्लियामेंट व्यवस्थापकों ने बार-बार इस बात को स्वीकार भी किया है। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ने भी इस बात को अपने सम्मान और राजनीति के सब अभिप्रायों के लिए अनुकूल होने के कारण माना है। इसलिए गवर्नमेंट ऑव इंडिया इन बरसों में हिंदुस्तानियों की कारगुज़ारी के ढंग में मुख्यतः बड़े-बड़े अधिकारियों के काम में पूरी उन्नति देखकर संतोष प्रकट करती है।
इस बड़े राज्य का प्रबंध जिन लोगों के हाथ में सौंपा गया है, उनमें केवल बुद्धि ही के प्रबल होने की आवश्यकता नहीं है, वरन् उत्तम आचरण और सामाजिक योग्यता की भी वैसी ही आवश्यकता है। इसलिए जो लोग कुल, पद और परंपरा के अधिकार के कारण आप लोगों में स्वाभाविक ही उत्तम हैं, उन्हें अपने को और अपने संतान को केवल उस शिक्षा के द्वारा योग्य करना आवश्यक है, जिससे कि वे श्रीमती महारानी प राजराजेश्वरी की गवर्नमेंट की राजनीति के तत्वों को समझें और काम में ला सके इस रीति से उन पदों के योग्य हों, जिनके द्वार उनके लिए खुले हैं।
राजभक्ति, धर्म, अपक्षपात, सत्य और साहस देश संबंधी मुख्य धर्म हैं उनका सहज रीति पर बरताव करना, आप लोगों के लिए बहुत आवश्यक है, तब श्रीमती की गवर्नमेंट राज के प्रबंध में आप लोगों की सहायता बड़े आनंद से अंगीकार करेगी, क्योंकि पृथ्वी के जिन-जिन भागों में सरकार का राज है, वहाँ गवर्नमेंट अपनी सेना के बल पर उतना भरोसा नहीं करती, जितना कि अपनी संतुष्ट और एकजी प्रजा की सहायता पर जो अपने राजा के वर्तमान रहने ही में अपना नित्य मंगल समझकर सिंहासन के चारों ओर जी से सहायता करने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं।
श्रीमती महारानी निर्बल राज्यों को जीतने या आसपास की रियासतों को मिला लेने से हिंदुस्तान के राज की उन्नति नहीं समझतीं वरन् इस बात में कि इस कोमल और न्याययुक्त राज्यशासन को निरुपद्रव बनाकर चलाने में जो हो उनका स्नेह और कर्तव्य केवल अपने ही राज से नहीं है, वरन् श्रीमती शुद्धचित्त से यह भी इच्छा रखती हैं कि जो राजा लोग इस बड़े राज की सीमा पर हैं और महारानी के प्रताप की छाया में रहकर बहुत दिनों से स्वाधीनता का सुख भोगते आ रहे हैं, उनसे निष्कपटभाव और मित्रता को दृढ़ रखें। परंतु यदि इस राज के अमन-चैन में किसी प्रकार के बाहरी उपद्रव की शंका होगी तो श्रीमती हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी अपने पैत्रिक राज की रक्षा करना ख़ूब जानती है। यदि कोई विदेशी शत्रु हिंदुस्तान के इस महाराज्य पर चढ़ाई करे तो मानो उसने पूरब के सब राजाओं से शत्रुता की और उस दशा में श्रीमती को अपने राज के अपार बल, अपने स्नेही और कर देने वाले राजाओं की वीरता, राजभक्ति, अपनी प्रजा के स्नेह और शुभचिंतन के कारण इस बात की भरपूर शक्ति है कि उसे परास्त करके दंड दें।
इस अवसर पर उन पूरब के राजाओं के प्रतिनिधियों का वर्तमान होना, जिन्होंने दूर-दूर देशों से श्रीमती को इस शुभ समारंभ के लिए बधाई दी है, गवर्नमेंट ऑव इंडिया के मेल के अभिप्राय और आस-पास के राजाओं के साथ उसके मित्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है। मैं चाहता हूँ कि श्रीमती की हिंदुस्तानी गवर्नमेंट की तरफ़ से श्रीयुत् खानकिलात और उन राजदूतों को जो इस अवसर पर श्रीमती के स्नेही राजाओं के प्रतिनिधि होकर दूर-दूर से अँग्रेज़ी राज में आए हैं और अपने प्रतिष्ठित पाहुने पर श्रीयुत् गवर्नर-जनरल गोआ और बाहरी कांसलों का स्वागत करूँ।
हे हिंदुस्तान के रईस और प्रजा लोग—मैं आनंद के साथ आप लोगों को यह कृपापूर्वक संदेशा जो श्रीमती महारानी और आप लोगों की राजराजेश्वरी ने आप लोगों को अपने राजसी और राजेश्वरीय नाम से भेजा है सुनाता हूँ, जो वाक्य श्रीमती के यहाँ से आज सवेरे तार के द्वारा मेरे पास पहुँचे हैं, ये हैं—हम, विक्टोरिया, ईश्वर की कृपा से, संयुक्त राज (ग्रेटब्रिटेन और आयरलैंड) की महारानी, हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी अपने वायसराय के द्वारा अपने सब राजकाज संबंधी और सेना संबंधी अधिकारियों, रईसों, सरदारों और प्रजा को, जो इस समय दिल्ली में इकट्ठे हैं, अपना राजसी और राजराजेश्वरी आशीर्वाद भेजते हैं और उस भारी कृपा और पूर्ण स्नेह का विश्वास कराते हैं, जो हम अपने हिंदुस्तान के महाराज्य की प्रजा की ओर रखते हैं। हमको यह देखकर जी से प्रसन्नता हुई कि हमारे प्यारे पुत्र का इन लोगों ने कैसा आदर सत्कार किया, और अपने कुल तथा सिंहासन की ओर उनकी राजभक्ति और स्नेह के इस प्रमाण से हमारे जी पर बहुत असर हुआ। हमें भरोसा है कि इस शुभ अवसर का यह फल होगा कि हमारे और हमारी प्रजा के बीच स्नेह और दृढ़ होगा तथा सब छोटे-बड़े को इस बात का निश्चय हो जाएगा कि हमारे राज में उन लोगों को स्वतंत्रता, धर्म और न्याय प्राप्त हैं। हमारे राज का अभिप्राय सदा यही है कि उनके सुख की वृद्धि, सौभाग्य की अधिकता और कल्याण की उन्नति होती रहे।
मुझे विश्वास है कि आप लोग इन कृपामय वाक्यों की गुणग्राहकता करेंगे।
ईश्वर विक्टोरिया संयुक्त राज की महारानी और हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की रक्षा करें।
इस ऐड्रेस के समाप्त होते ही नैशनल एंथेम का बाजा बजने लगा और सेना ने तीन बार हुर्र शब्द की आनंदध्वनि की। दरबार के लोगों ने भी परम उत्साह से खड़े होकर ‘हुर्र’ शब्द और हथेलियों की आनंदध्वनि करके अपने जी का उमंग प्रकट किया। महाराज सेंधिया, निज़ाम की ओर से सर सालारजंग, राजपूताना के महाराजों की तरफ़ से महाराज जयपुर, बेगम भूपाल, महाराज कश्मीर और दूसरे सरदारों ने खड़े होकर एक दूसरे को बधाई दी और अपनी राजभक्ति प्रकट की। इसके अनंतर श्रीयुत् वायसराय ने आज्ञा की कि दरबार हो चुका और अपनी चार घोड़े की गाड़ी पर चढ़कर अपने खेमे को रवाना हुए।
स्रोत : पुस्तक : भारतेंदु ग्रंथावली खंड-3 (पृष्ठ 112) संपादक : मिथिलेश पांडेय रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रकाशन : नमन प्रकाश