मानस का हंस : लोक-नायक का जीवन और संघर्ष
पुस्तक - ‘मानस का हंस’
लेखक - अमृतलाल नागर
समीक्षक - सुरज बिरादार
प्रकाशक - राजपाल प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष - 1972
मूल्य - 475 ₹
भारतीय जनता और विद्वान इस बात से सहमत हैं, कि तुलसीदास भारतवर्ष के सबसे लोकप्रिय कवि हैं । इस लोकप्रियता का आधार है, उनकी रचना में आया हुआ लोकजीवन । तुलसी उन बिरले कवियों में से हैं, जिन्होंने अपने समय को समझकर अपने काव्य को इस प्रकार रचा की वह लोकवादी काव्य बना । तुलसीदास ने अपने काव्य में भोगे हुए यथार्थ का ही चित्रण किया है । उन्होंने अपने राम को भी अपने समय के अनुरूप ढाला है । वाल्मीकि और भवभूति के राम से तुलसी के राम अलग है, क्योंकि तुलसी के राम सोलवीं शती के परिस्थिति अनुरूप हमें दिखाई देते हैं । जो शंबूक वध नहीं करते, सीता परित्याग नहीं करते । साथ ही हमें ऐसे बहुत से संदर्भ मिलेंगे जहाँ तुलसीदास ने अपने पूर्ववर्ती कवियों के अनैतिक संदर्भों को हटाया है । उसी महाकवि के जीवन पर आधारित एक क्लासिकल उपन्यास आपके समक्ष प्रस्तुत हैं ।
प्रस्तुत उपन्यास “मानस का हंस” लिखने की प्रेरणा अमृतलाल नागर को उनके परम मित्र फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश कौल के साथ बातें करते हुए सहसा आई । नागर जी की इच्छा थी कि महेश कौल तुलसीदास के जीवन पर कोई फिल्म बनाएं । लेकिन महेश कौल ने उन्हें फिल्म निर्माण में एक बड़ी समस्या बताई कि तुलसीदास पर अब तक लिखें सभी चरित अर्द्ध प्रमाणिक हैं । उनमें प्रमुख रूप से हम रघुबरदास, वेणीमाधवदास, कृष्णदत्त मिश्र, अविनाशराय और संत तुलसी साहब के लिखे पाँच तुलसी जीवनचरित देख सकतें हैं लेकिन एक को भी विद्वानों ने प्रमाणिक नहीं माना हैं । इस चर्चा का अंत दोनों मित्रों ने इस प्रकार किया कि अमृतलाल नागर तुलसीदास के जीवन पर एक फिल्म-स्क्रिप्ट बनाएंगे और महेश कौल उस फिल्म का निर्देशन करेंगे । लेकिन नागर जी ने उसी समय अपने मित्र को स्पष्ट कर दिया था कि वह पहले उपन्यास लिखेंगे और बाद में स्क्रिप्ट । क्योंकि इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा नागर जी को उनके फिल्म निर्माता-निर्देशक मित्र के साथ आई और इस पर वह फिल्म भी वह बनाना चाहते थे । इसी कारण से इस उपन्यास का कथानक फिल्मी तरीके का दिखाई पड़ता हैं । अगर उपन्यास की भाषा की ओर देखें तो उस पर लखनवी शैली का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । इस प्रकार उपन्यास की शुरुआत से ही लेखक पाठकों को बांधता है । भाषा सरल होने के कारण एक आम पाठक भी इस उपन्यास को पढ़ सकता है । यही इस उपन्यास की विशेषता है कि भाषा बोलचाल की लखनवी है । जिस प्रकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा है कि – “ग्रामीणों की बोलचाल की भाषा का प्रयोग होना चाहिये।” उस प्रकार इस उपन्यास की भाषा ग्रामीण बोलचाल लिए हुए भी साहित्यिक है । उपन्यास की कथा श्रावण कृष्णपक्ष की रात, मूसलाधार वर्षा के साथ शुरू होती है । लेखक शुरुआत से ही पाठक को कथानक से बंधे रखने के लिए कौतूहल (सस्पेन्स) पैदा करता है । उपन्यास की शुरुआत में हमें तीन व्यक्ति अंधेरे में एक मंदिर की शरण में बरखा से बचते हुए एक दूसरे से बात करते दिखाई देते हैं । उस अंधेरी रात में किसी का चेहरा दिखाई नहीं देता और वह तीनों कहीं जाने की जल्दी में दिखाई देते हैं और लेखक यहीं पर प्रथम दृश्य समाप्त करतें हैं । यहाँ पर पाठकों में कौतूहल उत्पन्न होता है कि यह तीन व्यक्ति कौन थे । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि यह उपन्यास फिल्मी स्क्रिप्ट के तर्ज़ (शैली) पर बना है ऐसा जान पड़ता है उसी का उदाहरण हमने ऊपर देखा ।
तुलसीदास ने अपनी पत्नी को वचन दिया था कि उसकी मृत्यु से पहले वह अंतिम बार अपना दर्शन देने आएंगे । वचनानुसार तुलसी आएं और उनसे भेट की । रत्नावली के अंतिम संस्कार के बाद तुलसी उसी गाँव में कुछ दिन ठहरे जो उनकी जन्मभूमि थी । एक दिन गाँव वालों और तुलसी के शिष्यों ने आग्रह किया कि बाबा तुलसी अपनी आत्मकथा बताएं । इस प्रकार उपन्यास की कथा पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शैली शुरू होती है । जहाँ हमें पता चलता है तुलसी के जन्म के बारे में – तुलसी का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ । लेकिन अशुभ मुहूर्त पर जन्म के कारण उनके पिता ने उन्हें अपने घर काम करने वाली सेविका को सौंप दिया और उसने तुलसी को अपनी सास पार्वती को दे दिया । इस घटना को तुलसीदास ने विनयपत्रिका में इस प्रकार उल्लेखित किया है –
“जन्यो तनु कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिता हूँ।
जनतेऊ काहेको रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥”
उपन्यास में भी इस काव्य पंक्ति का उल्लेख करते हुए तुलसी भावुक हुए थे । तुलसी का आरंभिक जीवन दु:खों और कष्टों में बीता । उपन्यास के अनुसार वह पार्वती नामक एक बुढ़िया (जो जाति से दलित थी) के साथ झोंपड़े में रहते थे और भीक मांग कर गुजारा करते थे । इस के भी हमें विनयपत्रिका में उल्लेख मिलते हैं ।
“द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन छम, कियो न सँभाषन काहूँ ।”
जिस व्यक्ति का आरंभिक जीवन एक दलित विधवा स्त्री के सानिध्य में बीता । जिसने अपने जीवन की शुरुआत एक भिक्षुक कि तरह की और बाद में जो संत बना । जिस पर कबीर का प्रभाव है । जिसका जीवन ही अभाव और संघर्ष में बीता उस व्यक्ति पर जब समाज ने प्रश्न उठाएं और स्त्री और दलित विरोधी कहा । इस पर उपन्यास में एक प्रसंग लेखक ने दे कर इस विवाद को सुलझाने का प्रयास किया है । प्रसंग कुछ इस प्रकार है की तुलसीदास के सपने में रत्नावली आ कर अपने मन की शंकाएं दूर करती हैं और इस के माध्यम से लेखक तुलसी का पक्ष पाठकों के सामने रखते हैं । सब से अधिक विवादित काव्य पंक्तियाँ जो है –
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं ॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
इन विवादित काव्य पंक्तियों पर तुलसीदास उपन्यास में अपना पक्ष रत्नावली के सामने रखते हैं । वह कहते हैं कि यह कथा-प्रसंग में आए हुए पात्रों के विचार हैं । तुलसी आगे अपने को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि स्त्री का महत्व पुरुष के जीवन में सब से बड़ा है । इस पर वह निम्न काव्य पंक्ति को प्रस्तुत करते हैं –
देखहु तात बसंत सुहावा,
प्रिया हीन मोंहि भय उपजावा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि तुलसीदास स्त्री महत्ता को समझने वाले प्रगतिशील कवि हैं । जिसका शुरुआती जीवन एक शूद्र विधवा वृद्ध महिला के संरक्षण में बीता जिन्हें वह पार्वती अम्मा कह कर पुकारता था । वह व्यक्ति कभी स्त्री और दलित विरोधी हो सकता है ? उपन्यास में एक और प्रसंग हमें मिलता है जहाँ तुलसीदास एक दलित और गाँव से निष्कासित व्यक्ति को अपनी कुटिया तक ले जाकर भोजन पानी करते हैं । इस पर तुलसीदास का विरोध कुछ ब्राह्मण करते हैं । कुछ उनकी जाति पर प्रश्न चिह्न लगते हैं । लेकिन तुलसी इस सब विरोधों को सहर्ष स्वीकार करते हैं । उपन्यास में एक और प्रसंग हमें मिलता है जहाँ तुलसी एक कार्यक्रम में जाते हैं जहाँ कुछ नवयुवक ब्राह्मण उनकी जाति पूछते हैं और उनका मज़ाक उड़ाने का प्रयत्न करते हैं । इस पर तुलसीदास उपन्यास में निम्न काव्य पंक्ति से अपना पक्ष रखते हैं -
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥
तुलसीदास अपने समय को ही आपने काव्य में लिखते थे । भले वह राम काव्य लिखे या कृष्ण काव्य उस अपने समय अनुरूप ही कवि ने लिखा है । तुलसी ने जीवन में दरिद्रता देखा, भूक देखी और बेरोजगारी भी । इस पर वह लिखे हैं –
“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?”
इस से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि तुलसी लोकवादी कवि हैं और उनकी कविता जनता की आवाज़ है । उपर्युक्त पंक्तियाँ आज के समय में और भी प्रासंगिक हो गई है, जिस से तुलसीदास का महत्व समकालीन समय में और भी अधिक स्पष्ट होता है । तुलसीदास पर कबीर का बड़ा प्रभाव हमें उपन्यास में दिखाई देता है । इस उपन्यास में राम और काम का द्वंद भी हमें तुलसी के चरित्र से दिखाया गया है । जहाँ मोहिनी पर तुलसी आसक्त हो जाते हैं । लेकिन किस प्रकार से वह अपने आप पर संयम रखकर अपना जीवन राम की सेवा में लगा देते हैं । तुलसी लोक-नायक केवल इस कारण नहीं है कि उन्होंने लोकमंगल के लिए रचनाएँ की हैं बल्कि, इस लिए है कि वह एक समाज सेवक भी थे । वे केवल कोरे वचन देने में विश्वास नहीं रखते थे । जब काशी में महामारी आईं और हर दिन अनेकों घर लाशों के ढेर हो रहे थे । उस समय तुलसीदास ने अपने प्राणों की चिंता न करते हुए रात-दिन पीड़ितों की सेवा अपने शिष्यों के साथ मिल कर की । साथ ही उन्होंने पूरे काशी शहर में अलग अलग स्थानों पर नाटक मंडली स्थापित की । इन नाटक मंडली में सभी जाति के लोग साथ में अभिनय करते थे । इस से स्पष्ट होता है कि उन्होंने लोक सौहार्द के लिए आजीवन कार्य किया है ।
अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तुलसीदास लोक-नायक हैं और उन्होंने अपने जीवन में अनेक संघर्ष कर आने वाली युवा चेतना के लिय पथ-प्रदर्शक का कार्य किया है ।
©️ सुरज बिरादार