उसने कहा था


पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी कृत ‘उसने कहा था’ (कहानी)  


जीवन परिचय :

(जन्म 7 जुलाई 1883 और मृत्यु 12 सितंबर 1922)

गुलेरी जी के पिता हिमाचल प्रदेश में गुलेर गाँव के ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राज-सम्मान पाकर जयपुर राजस्थान में बस गए थे। शास्त्री जी की तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी गुलेरी जी जम्दात्री थी।  

हिन्दी के प्रमुख रचनाकार पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 7 जुलाई, 1888 को पुरानी बस्ती जयपुर में हुआ था।

गुलेरी जी हिन्दी के कथाकार, व्यंग्यकार तथा निबंधकार और अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। आप संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिन्दी, बांग्ला, अंग्रेजी, लैटिन और फैंच आदि भाषाओं पर एकाधिकार रखते थे।

गुलेरी जी केवल दस वर्ष के थे तब एक बार वे संस्कृत में भाषण देकर भारत धर्म महामंडल के विद्वानों को आश्चर्यचकित कर दिया था। उन्होंने  सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी से उतीर्ण की।

उनकी रूचि विज्ञानं में थी। प्रिय विषय इतिहास और पुरातत्व था। 1904 से 1922 तक वे महत्वपूर्ण संस्थानों में प्राध्यापक के पद पर कार्य किया।    

यह कहानी एक आदर्श प्रेम और देश-भक्ति की कहानी है। ‘उसने कहा था’ कहानी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका में जून 1915 में प्रकाशित हुई थी।

गुलेरी जी को हिन्दी साहित्य में सबसे अधिक प्रसिद्धि 1915 में ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित ‘उसने कहा था’ कहानी से मिली थी। इस कहानी को आज भी शिल्प एवं विषय-वस्तु की दृष्टि से ‘मील का पत्थर माना’ जाता है।

चंद्रधर शर्मा जी की मृत्यु बहुत ही कम उम्र (39) में 12 सितंबर 1922 ई० को काशी पीलिया रोग हो जाने के कारण हो गई थी।  

गुलेरी जी के इस कहानी का पृष्ठ भूमि प्रथम विश्वयुद्ध 1914-1918 की है। इस युद्ध में एक ओर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया और तुर्की था तो दूसरी ओर ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, जापान और इटली। प्रत्यक्ष रूप से भारत इस युद्ध में कहीं नहीं था। फिर भी भारतीय सिपाही इस युद्ध में भाग लिए थे। और अपने प्राणों की बलि भी दिए थे।

इसके आलावा उन्होंने दो और भी कहानियाँ लिखी है। ‘बुद्धू का कांटा’ (1914) और ‘सुखमय जीवन’ (1911) इन तीनों कहानियों में सबसे चर्चित कहानी ‘उसने कहा था’ है। इस कहानी में पूर्वदिप्ती शैली का प्रयोग हुआ है।


चंद्रधर शर्मा गुलेरी की रचनाएँ

निबंध- शैशुनाक की मूर्तियाँ, देवकुल, पुरानी हिन्दी, संगीत, कछुआ धर्म, आँख, मोरेसी मोहिं कुठाऊं।  

कविताएँ- एशिया की विजय दशमी, भारत की जय, वेनाक बर्न, आहिताग्नि, झुकी कमान, स्वागत, ईश्वर प्रार्थना।

कहानी संग्रह- उसने कहा था (1915), सुखमय जीवन (1911), बुद्धू का काँटा (1911) पाटलीपुत्र पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

संपादक- समालोचक 1903 से 1907 तक रहें।


आलोचकों की दृष्टि में– ‘गुलेरी’ चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अमर कहानियों की भूमिका में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि यह मर्यादा में रहकर प्रेम की व्यंजन करने वाली अद्वितीय कहानी है।

डॉ नरेंद्र के शब्दों में- “गुलेरी जी की कहानियों का प्रमुख आकर्षण तो रस ही है। यह रस उथली असिकता या मानसिक विलासिता का तरल द्रव्य नहीं है। जीवन के गंभीर उपभोगों से खींचा हुआ गाढ़ा रस है।”

डॉ० श्यान्सुन्दर दास ने गुलेरी के साहित्य को अमूल्य रत्न माना है, क्योंकि गुलेरी जी ने अपनी कहानियों में पात्रों के भाव, परिस्थिति में सजीवता का समावेश किया है।  

इस कहानी में दस पात्र हैं नौ पुरुष पात्र और एक स्त्री पात्र है

स्त्री पात्र- सूबेदारनी, पुरुष पात्र- लहनासिंह (नायक)

अन्य पात्र- सुबेदार हजारा सिंह, बोधा सिंह- सूबेदारनी होराँ का लड़का, वजीरा सिंह, अतर सिंह- लड़की का मामा, माहा सिंह- सिपाही, लपटन सिंह, अब्दुल्लाह, डाक बाबू और पोल्हूराम।

यह कहानी पाँच भागों में है

‘उसने कहा था’ कहानी कहानी प्रथम विश्वयुद्ध (1914–1918) की पृष्ठ भूमि पर लिखी गई मार्मिक कहानी है।

यह कहानी आज के प्रेमी-प्रेमिकाओं की तरह न तो कोई प्रेम सप्ताह मनाती है और ना ही प्रेम दिवस। आज इस कहानी के लिखे जाने के सौ साल बाद भी हिन्दी के प्रेम कहानियों का जब जिक्र होता है। तब बहुतों की स्मृति में पहले इसी कहानी का नाम आता है।

बीबीसी के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ ‘उसने कहा था’ कहानी सिर्फ प्रेम कथाओं में ही नहीं बल्कि हिन्दी की दस बेमिसाल कहानियों में शामिल है।

यहाँ कहानी कहानी लहनासिंह के आत्म बलिदान की कहानी है।

आलोचक नामवर सिंह का कहना है, कि उसने कहा था का समुचित मूल्यांकन होना अभी बाकी है। उनके अनुसार इस कहानी को अभी और भी पढ़े जाने और समझने की जरुरत है।


‘उसने कहा था’ कहानी


पहला भाग: बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने की तरस खाते है, कभी उनके पैरों की उंगलियों के पोरों चिंघकर अपने को ही सताया हुआ बताते है और संसार भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते है। तब अमृतसर में उनके बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर एक लडढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुंद्र उमड़ा कर बचो खालसाजी, हटो भाईजी’, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बताकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं । क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नही कि उनकी जीभ चलती ही नही, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नही हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उम्र तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।


ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक के दूकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था। और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ो की गड्डी गिने बिना हटता न था।

तेरा घर कहाँ है?

मगरे में, और तेरा?

तेरा घर कहाँ है?

 मगरे में,और तेरा?

माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?

अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।

मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।

इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया। दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात् दोनो मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी  कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली, “हाँ हो गई”

“कब?”

“कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।” लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया। एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई। एक कुते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपादी पाई तब कहीं घर पहुँचा।


दूसरा भाग : ‘राम राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गई। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ ऊपर से। पिंडलियों तक तक कीचड़ में धसे हुए हैं। जमीन  कहीं दिखती नहीं। घंटे दो घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ साड़ी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था। यहाँ दिन में पचीस जलजले होते है। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते है। “लहनासिंह और तीन दिन हैं चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों ‘रिलीफ’ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग़ में मखमल की सी हरी घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते है, दाम नहीं लेती, कहती है, तुम राजा हो मेरे मुल्क को बचाने आये हो” चार दिन तक एक पलक नहीं झपकी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुल्म मिल जाए, फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटू तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के कलों के घोड़े, संगीन देखते ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था। चार मिल तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो…” नहीं तो सीधे वर्लिन पहुंच जाते! क्यों? सूबेदार हजारसिंह ने मुस्कुराकर कहा, “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते है। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा? ‘सूबेदार जी, सच है’ लहनासिंह बोला, पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते जहर रहें है। एक धावा हो जाए तो गरमी आ जाए। “उदमी, उठ सिगड़ी में कोले डाल। वजीर, तुम चार जने बाल्टियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है। खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले, यह कहते हुए सूबेदार साड़ी खन्दक में चक्कर लगाने लगा।

वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गन्दला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, मैं पौधा बन गया हूँ करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण! इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए। लहना सिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी डाल दो ऐसा खाद का पानी पंजाब भर में नहीं मिलेगा। हाँ देश क्या है? स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाउंगा। लाड़ी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पीनेवाली फिरंगी मेम…’

चुप कर यहाँ वालों को शर्म नहीं. देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाकू नहीं पिटे है। वह सिगरेट देने में हठ करती है। ओंठों में लगाना चाहती है और पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा माँ गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।

अच्छा, अब बोधा सिंह कैसा है? ‘अच्छा हैं, जैसे मैं जानता ही न होऊ! रात भर तुम अपने कम्बल उसे ओढ़ाते हो और आप सिगरी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो। आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मांदे पड़ जाना जाड़ा क्या है, मौत है और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते। मेरा दर मत करो। मैं तो बुलेल के खड्डू के किनारे मरुंगा। भाई कीरत सिंह की गोदी पर मेरे सर होगा और मेरे हाथ के लागाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी। वजीर सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, क्या मरने-मारने की बात लगाईं है? मारें जर्मनी के तुरक!

हाँ भाइयों कैसे?

दिल्ली शहर तें पिशोर नु जांदिए,

कर लेना लौंगा दा बपार मड़ीए,

कर लेना नादेड़ा सौदा अडिए,

(ओय) लाणा चटाका कदुए नु

क बणाया वे मजेदार गोरिये

हुण लाणा चटाका कदुए नु

कौन जनता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे। पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए। मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।


तीसरा भाग: दोपहर रात गई अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधसिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर बोधासिंह कराहा?

‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’ ‘पानी पिला दो।’

लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगाकर पूछा ‘कहो कैसे हो?’ पानी पीकर बोधा बोला, ‘कंपनी  छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।’ ‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’ ‘और तुम?’ ‘ मेरे पास सिगरी है। और मुझे गरमी लगती है। पसीना आ रहा है।’ ना मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए’ हाँ याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बन-बुनकर भेज रही है मेमें, गुरु उनका भला करें। यों कहकर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा। सच कहते हो? और नहीं झूठ? यों कहकर नाँही करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।

आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई-सूबेदार हजारासिंह। कौन लपटन साहब? हुक्म हुजुर! कहकर सूबेदार तन कर फ़ौज सलाम करके सामने हुआ।

देखों, इसी दम धावा करना होगा। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने ऊँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे।दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, ‘लो तुम भी पियो’।

आंख मारते-मारते लहनासिंह सब समझा गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, ‘लाओ साहब’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से क्तेबाल कहाँ से आ गए?” लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।

‘क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?’

‘लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं?’

‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ?’ याद है, परसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे

‘हाँ, हाँ

‘वही जब आप खोते पर सवार थे और, और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का- सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी नहीं देखि थी। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाया का सर आ गया था न? आपने कहा था कि रेज्मेंट की मेस में लगाएँगे।‘

‘हाँ पर मैने वह विलायत भेज दिया

‘ऐसे बड़े-बड़े सिंग दो-दो फुट के तो होंगे?’

‘हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?’

‘पिता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ, कहा कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए। अँधेरे में किसी सोने वाले से टकराया।

‘कौन? वजीरासिंह?’

‘हाँ, क्यों लहना? क्या क़यामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?’


चौथा भाग: ‘होश में आओ।क़यामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।’

‘क्या?’

‘लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है। पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया ही?’                  

 तो अब?

अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन में पैरो के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे।

सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।’

हुकुम तो यह है कि यहीं…

ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की कबर लेता हूँ’ 

‘पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।

आठ नही, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।

लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने…

इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आँख! मीन गाट्ट’ कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हे अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्च्छा हटी। लहना सिह हँसकर बोला, क्यो, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं । यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं । यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं । यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियो पर जल चढाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढते हैं । पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना ‘डैम’ के पाँच लफ़्ज भी नही बोला करते थे ।

लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नही ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनो हाथ जेबो में डाले।

लहनासिंह कहता गया, चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतो को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चो को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमे से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नही मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे। मंडी के बनियो को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो-

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरो ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी।

धडाका सुनकर सब दौड़ आये।

बोधा चिल्लाया- क्या है?

लहनासिंह में उसे तो यह कह कर सुला दिया कि ‘एक हडका कुत्ता आया था, मार दिया’ और औरो से सब हाल कह दिया। बंदूके लेकर सब तैयार हो गये। लहना ने साफ़ा फाड़ कर घाव के दोनो तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी। घाव माँस में ही था। पट्टियो के कसने से लूह बन्द हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखो की बंदूको की बाढ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर मार रहा था। वह खड़ा था औऱ लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटो में वे…अचानक आवाज आयी ‘वाह गुरुजी की फतह ! वाहगुरु दी का खालसा!’ और धड़ाधड़ बंदूको के फायर जर्मनो की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया ।

लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया ।

एक किलकारी और ‘अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी। वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! ‘और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खो में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाकी का साफ़ा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर नही हुई कि लहना के दूसरा घाव- भारी घाव- लगा है।

लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियो का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणो पदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौडा दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होने पीछे टेलिफ़ोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चली, जो कोई डेढ घंटे के अन्दर अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोडकर सूबेदार जाते नही थे। यह देख लहना ने कहा, तुम्हे बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।

और तुम?

मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगीं। मेरा हाल बुरा नही हैं। देखते नही मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही अच्छा, पर…

बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होने कहा था, वह मैंने कर दिया।

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा, तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?

अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।

गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।

 

पाँचवा भाग: मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यो के रंग साफ़ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।

लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह ‘धत्’ कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा, हाँ, कल हो गयी, देखते नही, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?

वजीरासिंह पानी पिला दे।

पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफ़ल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नही। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे। सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया। बोला- लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।

लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाज़े पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप। मुझे पहचाना?

नहीं। ‘तेरी कुड़माई हो गयी? … धत्…कल हो गयी…देखते नही, रेशमी बूटों वाला सालू… अमृतसर में…

भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

वजीरासिंह, पानी पिला- उसने कहा था ।

स्वप्न चल रहा हैं । सूबेदारनी कह रही है- मैने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमकहलाली का मौक़ा आया है। पर सरकार ने हम तीमियो की एक घघरिया पलटन क्यो न बना दी जो मै भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया । सूबेदारनी रोने लगी- अब दोनों जाते हैं । मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ो की लातो पर चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गयी। लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया। वजीरासिंह, पानी पिला- ‘उसने कहा था’।

लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला– कौन? कीरतसिंह?

वजीरा ने कुछ समझकर कहा- हाँ।

भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।

वजीरा ने वैसा ही किया।

हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीँ बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैने इसे लगाया था।

वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारो में पढ़ा-

फ्रांस और बेलजियम- 67वीं सूची- मैदान में घावों से मरा- न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह। 


निष्कर्ष- हम कह सकते हैं कि ‘उसने कहा था’ कहानी कला की दृष्टि से एक बहुत ही सफल कहानी है। जिसमे लहना सिंह के माध्यम से लेखक ने निश्छल प्रेम, प्रण पालक, त्याग और बलिदान आदि का सन्देश दिया है। वास्तव में इस कहानी को कला के कारण ही कुछ समीक्षक इसे हिन्दी की पहली आधुनिक कहानी का गौरव देते है।