माँ के लिए एक कविता
कात्यायनी (1959 ई.)
परिचय
समकालीन कवयित्रीयों में कात्यायनी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। कात्यायनी का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा है। वे एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे आज भी मजदूर संगठनों तथा स्त्रियों से सम्बंधित मुद्दों पर सक्रिय भागीदारी निभाती हैं। इनका जन्म 7 मई 1959 ई. को गोरखपुर (उ. प्र.) में हुआ है, इन्होंने एम. ए., एम. फिल. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की है। इनकी कविताओं में चिंतन, वैचारिकता और प्रतिबद्धता के दर्शन होते हैं। इनकी स्त्री विषयक कविताएं हिन्दी कविता में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। विगत 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं। इनकी कविताएँ हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन तथा कुछ कविताएँ अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में अनुदित प्रकाशित हो रही हैं। इनकी आधा दर्जन कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
प्रकाशित कृतियाँ :
कविता संग्रह : चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, फुटपाथ पर कुर्सी, राख अँधेरे की बारिश में। निबंध : दुर्ग द्वार पर दस्तक (स्त्री-प्रश्न विषयक निबन्धों का संकलन)
माँ के लिए एक कविता
वहाँ
अभी भी सन्नाटा गाता रहता है
उदास, फीकी धुनों पर पराजित आत्माओं का गीत ।
पीली धूप में
पत्त झड़ते रहते हैं।
जूठे बरतन इन्तज़ार करते रहते हैं
नल के नीचे
शाम होने को ।
एक जोड़ी घिसी हुई चप्पलें
थकी-हारी दाख़िल होती हैं घर में
दिन भर की पूरी थकान
शरीर से उतरकर पसर जाती है
घर-आँगन में।
इन्तज़ार आँखों में उतर आता है
उम्मीदों की तरह
कि छोटी-सी लहर की तरह एक बस्ता उछलता हुआ घर आता है।
बरतन में ढँका ठण्डा खाना
मुस्कराने लगता है।
पार्श्व में गूँजता उदासी का संगीत मद्धिम पड़ जाता है।
दाह-संस्कार से लौटे पाँवों की तरह
आतंक घर में दाखिल होता है
शाम के अँधेरे के साथ
बल्ब की बीमार रौशनी में
बस्ता बैठा हुआ
दफ्तर के काग़ज़ात खोलकर बैठ जाता है।
सबक याद करने लगता है
पुनः गूंजने लगता है सन्नाटे का वही संगीत धीरे-धीरे खर्राटों में तब्दील होता हुआ।
एक थकी हुई प्रतीक्षा,
बरामदे में निरुद्देश्य घूमती है चौका बरतन के काम निबटाने के बाद।
सन्नाटा गाता रहता है
एक उदास बूढ़े भजन की तरह पराजित आत्माओं का गीत।
तलघर में सफ़ेद बौने राक्षस
सिसकारी भरते हैं
दीवार पर लटकी तस्वीर के पीछे
घोंसला बनाए हुए कबूतर
पंख फड़फड़ाते हैं।
दिन भर के थके हुए हाथ
घूमते हैं आलस भाव से एक नन्हें शरीर पर
भय को धूल की तरह पोंछते हुए।
प्यार भरी उनींदी-सी लोरी
उम्मीदें गाने लगती है।
जीवन सुगबुगाता है।
करवट बदलकर गले में बाँहें डालकर निश्चिन्त हो जाता है।
पार्श्व में गूँजता रहता है
पराजित आत्माओं का वही गीत सपनों पर कालिख की तरह छाता हुआ।
चूल्हे की राख की परतों के बीच से
चिंगारियाँ झाँकती रहती हैं हल्की-सी लाल रोशनी बिखेरती हुईं।