हिंदी भाषा को जीवित रखने के लिए, आर्थिक सहयोग
भाषा मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो “व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। या मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है, उसे भाषा कहते हैं।”
“बोली – जबान – वाणी”
भाषा वह साधन है, जिसके माध्यम से हम सोचते है और अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। मनुष्य अपने विचार, भावनाओं एवं अनुभुतियों को भाषा के माध्यम से ही व्यक्त करता है।
एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है, और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। भाषा संस्कृति का वाहन है और उसका अंग भी। -रामविलास शर्मा
“भाषा एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और जिसके लिए हम आवश्यक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं।”
भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएं निम्न हैं-
प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है कि, “विचार और भाषआ में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।”
स्वीट के अनुसार, “ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।”
वेंद्रीय कहते हैं कि, “भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।”
ब्लाक तथा ट्रेगर के मतानुसार, “भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है।”
स्त्रुत्वा लिखते हैं, “भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तंत्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं संपर्क करते हैं।”
भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाय।
“भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।” – स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-
भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।
भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।
भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं।
भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है – ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता।
प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता।
भाषा संकेतात्मक होती है। अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति’ है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति– एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी– प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चारण-प्रक्रिया, शब्द-भंडार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को भाषा की शैली कह सकते हैं।
प्राचीनकाल से भाषा की उत्पत्ति पर विचार होता रहा है। कुछ विद्वानों का मंतव्य है कि यह विषय भाषा-विज्ञान का है ही नहीं। इस तथ्य की पुष्टि में उनका कहना है कि विषय मात्र संभावनाओं पर आधारित है।
भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन को भाषा-विज्ञान कहते हैं। यदि भाषा का विकास और उसके प्रारंभिक रूप का अध्ययन भाषा-विज्ञान का विषय है, तो भाषा-उत्पत्ति भी निश्चय ही भाषा-विज्ञान का विषय है। भाषा-उत्पत्ति का विषय अत्यंत विवादास्पद है।
विभिन्न भाषा-वैज्ञानिकों ने भाषा-उत्पत्ति पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, किन्तु अधिकांश मत कल्पना पर आधारित हैं। इनमें कोई भी तर्क संगत, पूर्ण प्रामाणिक तथा वैज्ञानिक नहीं है। इसी कारण किसी भी मत को सर्वसम्मति से स्वीकृति नहीं मिल सकी है।
इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा अच्छी़ तरह नहीं आती।
भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है।
जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषा विज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है।
संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है।
भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है।
भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है।
प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।
पढ़े विस्तार से – हिंदी भाषा का उद्भव और विकास।
भाषा बोलने, लिखने और समझने की आधार पर तीन प्रकार की होती हैं, अर्थात भाषा के तीन प्रकार के भेद या रूप होते हैं- मौखिक, लिखित और सांकेतिक भाषा।
मौखिक भाषा
लिखित भाषा
सांकेतिक भाषा
भाषा के जिस रूप से हम अपने विचार एवं भाव बोलकर प्रकट करते हैं अथवा दूसरों के विचार अथवा भाव सुनकर ग्रहण करते हैं, उसे मौखिक भाषा कहते हैं। उदाहरण के लिए- जब हम किसी से फोन पर बात करते हैं तो भाषा के मौखिक रूप का प्रयोग करते हैं।
भाषा का मौखिक रूप सीखने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, उदाहरण के लिए हम अपनी-अपनी मातृभाषा को परिवार और समाज से अनुकरण द्वारा स्वयं सीख जाते हैं।
जब हम मन के भावों तथा विचारों को लिखकर प्रकट करते हैं, तो वह भाषा का लिखित रूप कहलाता है। लिखित भाषा के उदाहरण निम्न है- पत्र, लेख, समाचार पत्र, कहानी, जीवनी संस्मरण, तार इत्यादि।
भाषा का लिखित रूप सीखने के लिए विशेष अध्ययन की आवश्यकता होती है। किसी भी भाषा को लिखने के लिए उसके वर्णों, शब्दों, वाक्यों अर्थात व्याकरण का सम्पूर्ण ज्ञान होना जरूरी है।
संकेत भाषा या सांकेतिक भाषा एक ऐसी भाषा है, जिसको हम विभिन्न प्रकार के दृश्य संकेतों (जैसे हस्तचालित संकेत, अंग-संकेत) के माध्यम से व्यक्त करतें हैं। इसमें बोलनें वाले के विचारों को धाराप्रवाह रूप से व्यक्त करने के लिए, हाथ के आकार, विन्यास और संचालन, बांहों या शरीर तथा चेहरे के हाव-भावों का एक साथ उपयोग किया जाता है।
उदाहरण के लिए- छोटे बच्चे और उसकी माँ के बीच की भाषा सांकेतिक भाषा है। छोटा बच्चा अपनी समस्याओं और इच्छाओं को विभिन्न संकेतों के माध्यम से बताता है, जैसे- अधिकतर बच्चों को जब भूख लगती है तो वह रोने लगते हैं।
सांकेतिक भाषा का प्रयोग अधिकतर ऐसे व्यक्तियों के लिए होता जो शारीरिक रूप से दिव्यांग होते है, जैसे- कान और मुख से अपंग।
भाषा के स्थिर तथा सुनिश्चित रूप को मानक या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं। मानक भाषा शिक्षित वर्ग की शिक्षा, पत्राचार एवं व्यवहार की भाषा होती है। इसके व्याकरण तथा उच्चारण की प्रक्रिया लगभग निश्चित होती है। मानक भाषा को टकसाली भाषा भी कहते हैं। इसी भाषा में पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन होता है। हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, संस्कृत तथा ग्रीक इत्यादि मानक भाषाएँ हैं।
किसी भाषा के मानक रूप का अर्थ है, उस भाषा का वह रूप जो उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-रचना, शब्द और शब्द-रचना, अर्थ, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, प्रयोग तथा लेखन आदि की दृष्टि से, उस भाषा के सभी नहीं तो अधिकांश सुशिक्षित लोगों द्वारा शुद्ध माना जाता है।
अनेक भाषाओं के अस्तित्व के बावजूद जिस विशिष्ट भाषा के माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति, राज्य-राज्य तथा देश-विदेश के बीच सम्पर्क स्थापित किया जाता है उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। एक ही भाषा परिपूरक भाषा और सम्पर्क भाषा दोनों ही हो सकती है।आज भारत मे सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी प्रतिष्ठित होती जा रही है जबकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है।
ऐसे व्यक्ति जिनकी आँखों में समस्या होती है अर्थात जिन्हें दिखाई नहीं देता उन्हे अंधा कहते है। ऐसे अधिकांश व्यक्ति जो बोलना और सुनना तो जानते हैं पर लिखने और पढ़ने में समस्या होती हैं, उनके लिए एक नेत्रहीन फ्रांसीसी लेखक लुई ब्रेल ने “ब्रेल पद्धति” का आविष्कार किया। ब्रेल एक तरह की लिपि है, जिसको विश्व भर में नेत्रहीनों को पढ़ने और लिखने में छूकर व्यवहार में लाया जाता है।
पढ़ें- लिपि किसे कहते हैं?
भाषा के मुख्य पाँच अंग होते हैं, जो कि इस प्रकार हैं- ध्वनि, वर्ण, शब्द, वाक्य और लिपि। सभी भाषा के अंगों का विवरण निम्नलिखित है-
ध्वनि– हमारे मुख से निकलने प्रत्येक स्वतंत्र आवाज ध्वनि होती है। और ये ध्वनियाँ हमेशा मौखिक भाषा में प्रयोग होतीं हैं।
वर्ण– वह मूल ध्वनि जिसके और टुकड़े ना किये जा सके, वह वर्ण कहलाते हैं। जैसे- अ, क्, भ्, म्, त् आदि।
शब्द– वर्णों का वह समूह जिसका कोई अर्थ निकलता है, उसे शब्द कहते हैं। जैसे- क् + अ + म् + अ +ल् + अ = कमल, भ् + आ + ष् + आ = भाषा।
वाक्य– सार्थक शब्दों का वह समूह जिसका कोई अर्थ निकलता है, उसे वाक्य कहते हैं। जैसे- कमल हिन्दी भाषा पढ़ रहा है। यदि हम इस वाक्य को “हिन्दी है रहा कमल पढ़ भाषा” लिख दे दो इसका कोई अर्थ नहीं निकलता, तो हम इसे वाक्य नहीं कह सकते।
लिपि– मौखिक भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिए जिन चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें लिपि कहते हैं। जैसे- हिन्दी भाषा की “देवनागरी लिपि” है।
जैसा कि हम सभी जानते है कि भाषा एक सम्प्रेषण (Communication) का माध्यम है। इस प्रकार भाषा की प्रक्रिया के पाँच चरण क्रमवार निम्न है- सुनना, देखना, बोलना, पढ़ना और लिखना।
जब कोई व्यक्ति हमसे कुछ कहता है तो उसे सुनना भी पड़ता है, बिना सुने भाषा का कोई महत्व नहीं है। उदाहरण के लिए- शिक्षक कहें कि ‘कल आपको जो प्रश्न दिए हैं उनके उत्तर लिखकर लाने हैं’, और शिक्षार्थी उसे सुने ही ना, अनसुना कर दे; तो वह उस कार्य को समय पर नहीं कर सकता। अतः कह सकते हैं भाषा को प्रभावी बनाने के लिए सुनने की प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है।
संचार या सम्प्रेषण में जिस प्रकार सुनने की प्रक्रिया एक आवश्यक हैं उसी प्रकार देखना भी। उदाहरण के लिए- शिक्षक शिक्षार्थियों को कोई गणित के प्रश्न का हल (answer) बोर्ड पर समझा रहा हैं, तो शिक्षार्थियों को चाहिए कि वे अपनी नजर बोर्ड पर ही रखें, क्यूंकि गणित के प्रश्न के उत्तरों में एक प्रक्रिया होती है जिसे देख कर ही समझा जा सकता है, सुनकर नहीं, या फिर दोनों देख और सुनकर “श्रव्य-द्रश्य”।
वर्तमान समय में इंटरनेट शिक्षा का एक अच्छा जरिया बन गया है, जैसे- yutube, श्रव्य-द्रश्य (Audio-Visual) माध्यम का सबसे अच्छा उदाहरण।
भाषा के प्रभावशाली संचार या सम्प्रेषण के लिये शुद्ध बोलना अति आवश्यक है। बोलना वाक-शक्ति द्वारा ध्वनियों को जोड़कर बने एक विस्तृत शब्दकोश के शब्दों का प्रयोग कर के करी गई सम्प्रेषण की क्रिया को कहते हैं। बोलनें के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक नहीं। परंतु भाषा के प्रभावी सम्प्रेषण के लिये व्याकरण का ज्ञान होना चाहिए।
बोलना, पढ़ने-लिखने के पहले ही सीख लिया जाता है, जिसके लिए लिखना और पढ़ना जानना जरूरी नहीं है। किंतु यदि सही बोला न जाए तो सही लिखा भी नहीं जाएगा। उसी तरह सही पढ़ा न जाए तो भी सही लिखा नहीं जाएगा। इसलिए पहले बोलना सीखा जाता है, उसके बाद पहले पढ़ना, फिर लिखना।
पढ़ना, भाषा की एक जटिल प्रक्रिया है। किसी भाषा को पढ़ने के लिए उस भाषा के वर्णों, शब्दों, वाक्यों अर्थात सभी व्याकरण अंगों का ज्ञान होना अति आवश्यक हैं। व्याकरण वह ज्ञान है जो हमें भाषा को शुद्ध रूप से बोलना, लिखना व पढ़ना सीखाता है।
लिखना, भाषा की एक अति जटिल प्रक्रिया है। किसी भाषा को लिखने के लिए उस भाषा के वर्णों, शब्दों, वाक्यों अर्थात सभी व्याकरण अंगों का ज्ञान होना अति आवश्यक हैं। अतः व्याकरण वह ज्ञान है जो हमें भाषा को शुद्ध रूप से बोलना, लिखना व पढ़ना सीखाता है।
यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें मुख्यतया अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं-
बोली,
विभाषा, और
भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा)
यह भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल अर्थात सीमित क्षेत्र से होता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोलचाल के माध्यम की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की भाषा है, इसका रूप (लहजा) कुछ-कुछ दूरी पर बदलते पाया जाता है तथा लिपिबद्ध न होने के कारण इसमें साहित्यिक रचनाओं का अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें विसंगतियॉं पायी जाती है।
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बोलियाँ प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएं मिल सकती हैं। विभाषा को उपभाषा भी कहते हैं। जैसे- ब्रज और अवध।
भाषा, अथवा कहें परिनिष्ठित भाषा या आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है। भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है। जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी।
बोली का क्षेत्र कुछ जिलों या ग्रामों तक सीमित होता है, जबकि भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है।
बोली क्षेत्र विशेष में बोली जाती है अतः विकसित नहीं होती, जबकि भाषा बोली का पूर्ण विकसित रूप होता है।
बोली में साहित्य लेखन क्षेत्रीय होता है, जबकि भाषा में साहित्य की प्रचुरता होती है।
बोली का प्रयोग राजकार्यों में नहीं होता है, जबकि भाषा का प्रयोग राजकार्य में भी होता है।
बोली का व्याकरण सीमित या नहीं होता है, जबकि भाषा का व्याकरण सुव्यवस्थित एवं पूर्ण होता है।
बोलियों में जैसे- कन्नौजी, कुमाउनी, मेवाती आदि। भाषाओं में जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी।
भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है। जबकि विभाषा का क्षेत्र सीमित होता है।
भाषा बोली का पूर्ण विकसित रूप होता है। जबकि विभाषा बोली का अर्ध विकसित रूप होता है।
भाषा साहित्य की प्रचुरता तथा महत्ता होती है। जबकि विभाषा में साहित्य तो रहता है परंतु उसे महत्ता प्राप्त नहीं हो पाती है।
भाषा का प्रयोग राजकार्य में भी होता है। जबकि विभाषा केवल साहित्य तथा बोलचाल तक ही सीमित होती है।
भाषाओं में जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी। और विभाषाओं में जैसे- ब्रज और अवध।
प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राज्यभाषा घोषित कर दिया जाता है।
किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोलीऔर समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।
भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 21 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राजभाषा घोषित कर सकती हैं।
भारत के संविधान के अनुसार हिन्दी और अंग्रेजी भारत सरकार की राजभाषा है। राज्य सरकार की अपनी-अपनी राज्य भाषाएँ हैं।
राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्राय: वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्राय: राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश के नागरिकों के लिए गौरव, एकता, अखण्डता और अस्मिता का प्रतीक होती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा को राष्ट्र की आत्मा की संज्ञा दी है।
एक भाषा कई देशों की राष्ट्रभाषा भी हो सकती है; जैसे अंग्रेजी आज अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा कनाडा इत्यादि कई देशों की राष्ट्रभाषा है। संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो नहीं दिया गया है किन्तु इसकी व्यापकता को देखते हुए इसे राष्ट्रभाषा कह सकते हैं।
जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। मातृभाषा में अधिकांश रूप से क्षेत्रीय बोलियाँ शामिल होती हैं। जैसे- कन्नौजी, ब्रजभाषा, हरियाणवी, मालावी आदि।
विश्व में लगभग 6800 से अधिक भाषाएं हैं। जिनमें से 40% भाषाओं के, प्रत्येक भाषा में एक हजार से भी कम व्यक्ति हैं। अर्थात प्रत्येक भाषा, एक हजार से भी कम व्यक्तियों के समूहों द्वारा बोली जाती हैं। दुनियाँ में लगभग 23 भाषाएं प्रमुख हैं, जो समस्त संसार की आधी आबादी को अपने आप में समेंट लेती हैं।
अमेरिका की कोई आधिकारिक भाषा नहीं है।
गिनीआ (Papua New Guinea) में विश्व की सबसे अधिक भाषाएं हैं। यहाँ 840 से अधिक भाषाएं हैं। जिनमें से अब 40 ही मुख्य भाषाएं हैं।
दुनिया की 6800 भाषाओं में लगभग 600 से अधिक भारत की भाषाएं आती हैं।
सुमेरियन भाषा सबसे पुरानी लिखित भाषाओं में से एक है। यह 3300 ई०पू० की लिखित भाषा है।
बाइबिल सबसे ज्यादा अनुवादित की गई पुस्तक है, इसे 683 भाषाओं एवं इसके भागों को 3000 से अधिक भाषाओं में अनुवादित किया गया है। बाइबिल मूलतः हिब्रू, अरामी और कोइन ग्रीक (Hebrew, Aramaic, and Koine Greek) भाषाओं में लिखी गई थी।
फ्रेंच को दुनिया की ‘प्यार की भाषा’ (love language) कहते हैं।
पापुआन (Papuan) भाषा में सबसे कम वर्ण 11 हैं। यह रोटोकास की भाषा है।
रूसी भाषा को ‘युद्ध की भाषा’ कहा जाता है।
अंग्रेजी विश्व की सबसे प्रभावी भाषा है, परंतु यह सबसे ज्यादा बोली जाने बाली भाषा नहीं है।
कम्बोडियन भाषा में सबसे ज्यादा वर्ण, 73 से भी अधिक हैं।
चीन की मंदारिन भाषा में वर्ण के स्थान पर प्रतीकों (symbols) का प्रयोग होता है। इसीलिए यह विश्व की सबसे कठिन भाषा है। लोग कहते हैं वे लिखते नहीं है चित्र बनाते हैं। इसमें लगभग 9000 प्रतीक हैं। जिनमें से 3000 प्रतीकों का ज्ञान, एक अखबार पढ़ने के लिए जरूरी है।
छापाखाने या छपाई में प्रयुक्त पहली भाषा जर्मन है।
अंग्रेजी और फ्रेंच इंटरनेट की दुनिया में सबसे अग्रणी हैं। इसी बजह से अंग्रेजी को कई देशों में इसे अपने देश आधिकारिक भाषा का दर्जा देना पढ़ गया है।
यदि यही हाल रहा तो आने वाले दशकों में अंग्रेजी विश्व की लगभग सभी भाषाओं खा जाएगी। जैसे- अफ्रीका महाद्वीप में अंग्रेजी एक प्रथम भाषा बन गई है, नाइजीरिया में 9 करोड़ इंग्लिश बोलते हैं जबकि ब्रिटेन में 6 करोड़।
अमेरिका में अंग्रेजी भाषा की 24 से अधिक बोलियां बोली जातीं हैं।
क्या आप जानते है कि दुनिया की सबसे प्रसिद्ध भाषाएँ या सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाएँ कौन सी हैं? जानें-
यहाँ इस लिस्ट में दुनियां की 20 सबसे अधिक बोली जाने बाली भाषाओं को उनके बोलने बालों की संख्या के आधार पर दिया गया है।
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भाषा (Language)
भाषा-परिवार (Family )
वक्ता (Speakers)
1.
अंग्रेजी
इंडो-यूरोपियन
145.2 करोड़
2.
मंडारिन (मानक चीनी)
सिनो-तिब्बतीयन
111.8 करोड़
3.
हिन्दी
इंडो-यूरोपियन
60.2 करोड़
4.
स्पैनिश
इंडो-यूरोपियन
54.8 करोड़
5.
फ्रेंच
इंडो-यूरोपियन
27.41 करोड़
6.
अरबी (मानक)
अफ्रीकी-एशियाई
27.4 करोड़
7.
बंगाली
इंडो-यूरोपियन
27.27 करोड़
8.
रूसी
इंडो-यूरोपियन
25.82 करोड़
9.
पुरगाली
इंडो-यूरोपियन
25.77 करोड़
10.
उर्दू
इंडो-यूरोपियन
23.13 करोड़
11.
इंडोनेशियन
ऑस्ट्रोनेशियाई
19.9 करोड़
12.
जर्मन (मानक)
इंडो-यूरोपियन
13.46 करोड़
13.
जपानीज़
जपोनिक
12.54 करोड़
14.
नाइजीरियाई पिजिन
अंग्रेजी क्रियोल
12.07 करोड़
15.
मराठी
इंडो-यूरोपियन
9.91 करोड़
16.
तेलुगु
द्रविड़
9.57 करोड़
17.
तुर्की
तुर्की
8.81 करोड़
18.
तमिल
द्रविड़
8.64 करोड़
19.
यू चीनी
सिनो-तिब्बतीयन
8.56 करोड़
20.
वियतनामी
ऑस्ट्रोएशियाटिक
8.53 करोड़
भारतीय भाषाओं का उल्लेख भारत के संविधान के भाग 17 एवं 8वीं अनुसूची में अनुच्छेद 343 से 351 में है। 8वीं अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं की संख्या 22 है – कश्मीरी, सिन्धी, पंजाबी, हिन्दी, बंगाली, आसामी, उडिया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलगु, तमिल, मलयालम, उर्दू, संस्कृत, नेपाली, मढिपूडी, कोंकणी, बोडो, डोंगरी, मैथिली, संताली।
हिन्दी के अतिरिक्त केन्द्रीय स्तर पर भारत में दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेज़ी है। हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में किसी भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया है।
हिन्दी का इतिहास वस्तुत: वैदिक काल से प्रारंभ होता है। उससे पहले भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप क्या था इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता। साथ ही भारत में आर्यों का आगमन किस काल से हुआ इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। साधारणतया यह माना जाता है कि 2000 से 1500 ई. पूर्व भारत के उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश में आर्यों के दल आने लगे।
यहीं पहले से बसी हुई अनार्य जातियों को परास्त कर आर्यों ने सप्त सिंधु, जिसे हम आधुनिक पंजाब के नाम से जानते हैं, देश में आधिपत्य स्थापित कर लिया। यहीं से वे धीरे-धीरे पूर्व की ओर बढ़ते गए और मध्यदेश, काशी, कोशल, मगध, विदेह, अंग, बंग तथा कामरूप में स्थानीय अनार्य जातियों को पराभूत करके उन्होंने वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया।
इस प्रकार समस्त उत्तरापथ में अपना राज्य स्थापित करने के बाद आर्य संस्कृति दक्षिणापथ की ओर अग्रसरित हुई और युनानी राजदूत मेगास्थनीज के भारत आने तक आर्य संस्कृति सुदूर दक्षिण में फैल चुकी थी। आर्यों की विजय केवल राजनीतिक विजय मात्र नहीं थी। वे अपने साथ सुविकसित भाषा एवं यज्ञ परायण संस्कृति भी लाए थे। उनकी भाषा एवं संस्कृति भारत में प्रसार पाने लगी, किन्तु स्थानीय अनार्य जातियों का प्रभाव भी उस पर पड़ने लगा।
मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाइयों से सिन्धु घाटी की जो सभ्यता प्रकाश में आई है, उससे स्पष्ट है कि यायावर पशुपालक आर्यों के आगमन से पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता का बहुत अधिक विकास हो चुका था।
अत: यह सम्भव है आर्यों की भाषा, संस्कृति एवं धार्मिक विचारों पर अनार्य जाति की संस्कृति एवं संपर्क का पर्याप्त प्रभाव पड़ा होगा। अनार्य जातियों के योगदान के कथन से तात्पर्य यह नहीं है कि हिन्दी अथवा प्राकृतों में जो कुछ है वह आर्यों की ही भाषाओं से लिया गया है अथवा आर्यों की सारी संपत्ति प्राकृतों और हिंदी को प्राप्त हो गयी।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि युग-युग की भाषा में यहाँ तक कि वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में भी बहुत से अनार्य तत्व सम्मिलित थे।
भारतीय आर्य भाषा समूह को काल-क्रम की दृष्टि से निम्न भागों में बांटा (वर्गीकृत किया) गया है –
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (2000 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक)
संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (500 ई.पू. से 1000 ई. तक)
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा(1000 ई. से अब तक)
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है- वैदिक संस्कृत (2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक) संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत (800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)।
वैदिक संस्कृत
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का प्राचीनतम नमूना वैदिक-साहित्य में दिखाई देता है। वैदिक साहित्य का सृजन वैदिक संस्कृत में हुआ है। वैदिक संस्कृत को वैदिकी, वैदिक, छन्दस, छान्दस् आदि भी कहा जाता है। वैदिक साहित्य को तीन विभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- संहिता, ब्राह्मण, एवं उपनिषद् ।
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. कपिल देव द्विवेदी प्रभृति विद्वानों ने वैदिक ध्वनियों की संख्या 52 मानी है जिसमें 13 स्वर तथा 39 व्यंजन है। डॉ. हरदेव बाहरी ने वैदिक स्वरों की संख्या 14 मानी है।
लौकिक संस्कृत (संस्कृत)
लौकिक संस्कृत ‘प्राचीन-भारतीय-आर्य-भाषा’ का वह रूप जिसका पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में विवेचन किया गया है, वह ‘लौकिक संस्कृत‘ कहलाता है। संस्कृत में 48 ध्वनियाँ ही शेष रह गई। वैदिक संस्कृत की 4 ध्वनियाँ ळ, ळह, जिह्वमूलीय और उपध्मानीय के लुप्त होने से लौकिक संस्कृत की 48 ध्वनियाँ शेष बच गयी।
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा को अध्ययन की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित/वर्गीकरण किया गया है- पालि (500 ई.पू. से 1 ई. तक), प्राकृत (1 ई. से 500 ई. तक), अपभ्रंश (500 ई. से 1000 ई. तक)।
पालि
‘पालि’ का अर्थ ‘बुद्ध वचन’ (पा रक्खतीति बुद्धवचनं इति पालि) होने से यह शब्द केवल मूल त्रिपिटक ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त हुआ। पालि में ही त्रिपिटक ग्रन्थों की रचना हुई । त्रिपिटकों की संख्या तीन है- (1) सुत्त पिटक (2) विनय पिटक एवं (3) अभिधम्म पिटक।
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से सम्राट अशोक के पुत्र कुमार महेन्द्र त्रिपिटकों के साथ लंका गए। वहाँ लंका नरेश ‘वट्टगामनी’ (ई. पू. 291) के संरक्षण में थेरवाद का त्रिपिटक (बुद्ध के उपदेशों का संग्रह) लिपिबद्ध हुआ। ‘पालि’ भारत की प्रथम ‘देश भाषा’ है।
प्राकृत
मध्यकालीन आर्यभाषा को ‘प्राकृत’ भी कहा गया है। ‘प्राकृत’ की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं जो निम्न हैं-
1. प्राकृत प्राचीनतम प्रचलित जनभाषा है। नमि साधु ने इसका निर्वचन करते हुए लिखा है-
‘प्राक् पूर्व कृतं प्राकृत’
अर्थात् प्राक् कृत शब्द से इसका निर्माण हुआ है जिसका अर्थ है पहले की बनी हुई। जो भाषा मूल से चली आ रही है उसका नाम ‘प्राकृत’ है (नाम प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्) ।
2. नामि साधु ने ‘काव्यालंकार‘ की टीका में लिखा है-
प्राकृतेति सकल-जगज्जन्तूनां व्याकरणादि मिरनाहत संस्कार: सहजो वचन व्यापारः प्रकृति: प्रकृति तत्र भवः सेव वा प्राकृतम्’
अर्थात सकल जगत् के जन्तुओं (प्राणियों) के व्याकरण आदि संस्कारों से रहित सहजवचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं। उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है।
वाक्पतिराज ने ‘गउडबहो‘ में लिखा है-
सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो यणेति वायाओ।।
एंति समुद्धं चिह णेति सायराओ च्चिय जलाई ।।”
अर्थात्– जिस प्रकार जल सागर में प्रवेश करता है और वही से निकलता है, उसी प्रकार समस्त भाषाएँ प्राकृत में ही प्रवेश करती हैं और प्राकृत से ही निकलती हैं।
अपभ्रंश
‘अप्रभ्रंश’ मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है। इसीलिए विद्वानों ने अपभ्रंश’ को एक सन्धिकालीन भाषा कहा है।
भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ के अनुसार सर्वप्रथम व्याडि ने संस्कृत के मानक शब्दों से भिन्न संस्कारच्युत, भ्रष्ट और अशुद्ध शब्दों को ‘अपभ्रंश’ की संज्ञा दी। भर्तृहरि ने लिखा है-
“शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते।
तमपभ्रंश मिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशिनम्॥”
व्याडि की पुस्तक का नाम ‘लक्षश्लोकात्मक-संग्रह‘ था जो दुर्भाग्य-वश अनुपलब्ध है।
‘अपभ्रंश‘ शब्द का सर्वप्रथम प्रामाणिक प्रयोग पतंजलि के ‘महाभाष्य‘ में मिलता है। महाभाष्यकार ने ‘अपभ्रंश’ का प्रयोग अपशब्द’ के समानार्थक रूप में किया है-
“भयां सोऽपशब्दाः अल्पीयांसाः शब्दा: इति।
एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽप्रभंशाः ।।”
‘अपभ्रंश‘ के सबसे प्राचीन उदाहरण भरतमुनि के नाट्य-शास्त्र’ में मिलते हैं, जिसमें ‘अपभ्रंश’ को ‘विभ्रष्ट’ कहा गया है।
डॉ. भोलानाथ तिवारी और डॉ. उदयनारायण तिवारी के अनुसार, भाषा के अर्थ में ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रथम प्रयोग-चण्ड (6वीं शताब्दी) ने अपने प्राक्रत-लक्षण’ ग्रन्थ में किया है। (न लोपोऽभंशेऽधो रेफस्य)।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘अपभ्रंश’ नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि. सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।
भामह ने ‘काव्यालंकार‘ में अपभ्रंश को संस्कृत और प्राकृत के साथ एक काव्योपयोगी भाषा के रूप में वर्णित किया है-
“संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा।”
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपभ्रंश को ‘ण–ण भाषा’ कहा है।
आचार्य दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ में समस्त वाङ्मय को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र, इन चार भागों में विभक्त किया है-
“तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृत प्राकृतं तथा।।
अपभ्रंशश्च मिश्रञ्चेत्याहुशर्याश्चतुर्विधम्।।”
आचार्य दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ में अपभ्रंश को ‘आभीर‘ भी कहा है-
“आभीरादि गिरथः काव्येष्वपभ्रंशः इति स्मृताः।”
अपभ्रंश को विद्वानों ने विभ्रष्ट, आभीर, अवहंस, अवहट्ट, पटमंजरी, अवहत्थ, औहट, अवहट, आदि नाम से भी पुकारा है।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का समयकाल 1000 ई. से अब तक है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषा से अभिप्राय सन् 1947 से पूर्व का अविभाजित भारत से है, जिसमें पाकिस्तान और बंगलादेश समाविष्ट थे। कुछ विद्वान तो भारत का अर्थ श्रीलंका और वर्मा सहित भारतीय आर्यभाषा में लेते हैं। वस्तुतः अंग्रेजों के आने से पूर्व ये सब प्रदेश भारत के ही अंग थे।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा का सर्वप्रथम वर्गीकरण डॉ. ए. एफ. आर. हार्नले ने सन् 1880 ई. में किया था । डॉ. हार्नले ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं को 4 वर्गों में विभाजित किया है, जो निम्नांकित हैं-
पूर्वी गौडियन-पूर्वी हिन्दी, बंगला, असमी, उड़िया।
पश्चिमी गौडियन-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी, पंजाबी।
उत्तरी गौडियन-गढ़वाली, नेपाली, पहाड़ी।
दक्षिणी गौडियन-मराठी।
डॉ. हार्नले के अनुसार जो आर्य मध्यदेश अथवा केन्द्र में थे ‘भीतरी आर्य‘ कहलाये और जो चारों ओर फैले हुए थे ‘बाहरी आर्य‘ कहलाये।
डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया-भाग-1 तथा बुलेटिन ऑफ द स्कूल ऑफ ओरियंटल स्टडीज, लण्डन इन्स्टिट्यूशन- भाग-1 खण्ड 3, 1920) अपना पहला वर्गीकरण निम्नांकित ढंग से प्रस्तुत किया है-
बाहरी उपशाखा-
(क) उत्तरी-पश्चिमी समुदाय– (i) लहँदा (ii) सिन्धी।
(ख) दक्षिणी समुदाय– (i) मराठी ।
(ग) पूर्वी समुदाय– (i) उड़िया, (ii) बिहारी, (iii) बंगला, (iv) असमिया।
मध्य उपशाखा-
(क) मध्यवर्ती समुदाय-(i) पूर्वी हिन्दी।
भीतरी उपशाखा-
(क) केन्द्रीय समुदाय– (i) पश्चिमी हिन्दी, (ii) पंजाबी, (iii) गुजराती, (iv) भीरनी, (v) खानदेशी, (vi) राजस्थानी।
(ख) पहाड़ी समुदाय– (i) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली, (ii) मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी, (iii) पश्चिमी-पहाड़ी।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के वर्गीकरण की आलोचना ध्वनिगत एवं व्याकरणगत आधारों पर करते हुए अपना वैज्ञानिक वर्गीकरण निम्न वर्गों में प्रस्तुत किया:-
उदीच्य-सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।
प्रतीच्य-राजस्थानी, गुजराती।
मध्य देशीय-पश्चिमी हिन्दी।
प्राच्य-पूर्वी हिन्दी, बिहारी, उड़िया, असमिया, बंगला।
दक्षिणात्य-मराठी।।
डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने डॉ. चटर्जी के वर्गीकरण में सुधार करते हुए अपना निम्नांकित वर्गीकरण प्रस्तुत किया:-
उदीच्य-सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।
प्रतीच्य-गुजराती।
मध्य देशीय-राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी।
प्राच्य-उड़िया, असमिया, बंगला।
दक्षिणात्य-मराठी।
सीताराम चतुर्वेदी ने सम्बन्ध सूचक परसर्गों के आधार पर अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया, जो निम्न है:-
का– हिन्दी, पहाड़ी, जयपुरी, भोजपुरी।
दा– पंजाबी, लहँदा।
ज– सिन्धी, कच्छी।
नो– गुजराती।
एर– बंगाली, उड़िया, असमिया।
भोलानाथ तिवारी ने क्षेत्रीय तथा सम्बद्ध अपभ्रंशों के आधार पर अपना वर्गीकरण निम्न ढंग से प्रस्तुत किया है:-
अपभ्रंश
आधुनिक भाषाएँ
शौर सेनी (मध्यवर्ती)
पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती ।
मागधी (पूर्वीय)
बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमिया।
अर्धमागधी (मध्य पूर्वीय)
पूर्वी हिन्दी।
महाराष्ट्री (दक्षिणी)
पूर्वी मराठी।।
व्राचड- पैशाची (पश्चिमोत्तरी)
सिन्धी, लहँदा, पंजाबी।
प्रमुख आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताएँ एवं प्रकार-
सिन्धी भाषा
सिन्धी शब्द का सम्बन्ध संस्कृत सिन्धु से है। सिन्धु देश में सिन्धु नदी के दोनों किनारों पर सिन्धी भाषा बोली जाती है।
सिन्धी की मुख्यतः 5 बोलियाँ-विचोली, सिराइकी, थरेली, लासी, लाड़ी है।
सिन्धी की अपनी लिपि का नाम ‘लंडा’ है, किन्तु यह गुरुमुखी तथा फारसी-लिपि में भी लिखी जाती है।
लहँदा भाषा
लहँदा का शब्दगत अर्थ है ‘पश्चिमी’। इसके अन्य नाम पश्चिमी पंजाबी, हिन्दकी, जटकी, मुल्तानी, चिभाली, पोठवारी आदि है।
लहँदा की भी सिन्धी की भाँति अपनी लिपि ‘लंडा’ है, जो कश्मीर में प्रचलित शारदा-लिपि की ही एक उपशाखा है।
पंजाबी भाषा
पंजाबी शब्द ‘पंजाब’ से बना है जिसका अर्थ है पाँच नदियों का देश।
पंजाबी की अपनी लिपि लंडा थी जिससे सुधार कर गुरुअंगद ने गुरुमुखी लिपि बनाई।
पंजाबी की मुख्य बोलियाँ माझी, डोगरी, दोआबी, राठी आदि है।
गुजराती भाषा
गुजराती गुजरात प्रदेश की भाषा है। गुजरात का सम्बन्ध ‘गुर्जर’ जाति से है- गुर्जर + त्रा → गज्जरत्ता → गुजरात।
गुजरात की अपनी लिपि है जो गुजराती नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुत: गुजराती कैथी से मिलती-जुलती लिपि में लिखी जाती है। इसमें शिरोरेखा नहीं लगती।
मराठी भाषा
मराठी महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा है। इसकी प्रमुख बोलियाँ कोंकणी, नागपुरी, कोष्टी, माहारी आदि हैं।
मराठी की अपनी लिपि देवनागरी है किन्तु कुछ लोग मोडी लिपि का भी प्रयोग करते हैं।
बंगला भाषा
बंगला संस्कृत शब्द बंग + आल (प्रत्यय) से बना है। यह बंगाल प्रदेश की भाषा है।
नवीन यूरोपीय विचारधारा का सर्वप्रथम प्रभाव बंगला भाषा और साहित्य पर पड़ा।
बंगला प्राचीन देवनागरी से विकसित बंगला लिपि में लिखी जाती है।
असमी भाषा
असमी (असमिया) असम प्रदेश की भाषा है। इसकी मुख्य बोली विश्नुपुरिया है।
असमी की अपनी लिपि बंगला है।
उड़िया भाषा
उड़िया प्राचीन उत्कल अथवा वर्तमान उड़ीसा (ओडीसा) की भाषा है। इसकी प्रमुख बोली गंजामी, सम्भलपुरी, भत्री आदि है।
उड़िया भाषा बंगला से बहुत मिलती-जुलती है किन्तु इसकी लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली से विकसित है।
मौखिक भाषा या उच्चारित भाषा को स्थायी रूप देने के लिए भाषा के लिखित रूप का विकास हुआ। प्रत्येक ध्वनि के लिए लिखित चिह्न या वर्ण बनाए गए। वर्णों की इसी व्यवस्था को ‘लिपि‘ कहा जाता है। वास्तव में लिपि ध्वनियों को लिखकर प्रस्तुत करने का एक ढंग है।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य के लिए अपने-अपने भावों और विचारों को स्थायित्व देना, दूर-दूर स्थित लोगों से सम्पर्क बनाए रखना तथा संदेशों और समाचारों के आदान-प्रदान के लिए मौखिक भाषा से काम चला पाना असम्भव हो गया। अनुभव की गई यह आवश्यकता ही लिपि के विकास का कारण बनी।
मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप में प्रकट करने के लिए निश्चित किए गए चिह्नों को लिपि कहते हैं।
संसार की विभिन्न भाषाओं को लिखने के लिए अनेक लिपियाँ प्रचलित हैं। हिन्दी, मराठी, नेपाली और संस्कृत भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। ब्राह्मी वह प्राचीन लिपि है जिससे हिन्दी, बंगला, गुजराती, आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ।
देवनागरी बाईं ओर से दाईं ओर को लिखी जाती है। यह बहुत ही वैज्ञानिक लिपि है। भारत की अधिकांश भाषाओं की लिपियाँ बाईं ओर से दाईं ओर को ही लिखी जाती हैं। केवल ‘फारसी’ लिपि जिसमें उर्दू भाषा लिखी जाती है, दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती है।
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भाषा (Language)
लिपि (Script)
1.
प्रत्येक भाषा की अपनी ध्वनियाँ होती है।
सामान्यतः एक लिपि किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है।
2.
भाषा सूक्ष्म होती है।
लिपि स्थूल होती है।
3.
भाषा में अपेक्षाकृत अस्थायित्व होता है, क्योंकि भाषा उच्चरित होते ही गायब हो जाती है।
लिपि में अपेक्षाकृत स्थायित्व होता है, क्योंकि किसी भी लिपि को लिखकर ही व्यक्त किया जा सकता है।
4.
भाषा ध्वन्यात्मक होती है।
लिपि दृश्यात्मक होती है।
5.
भाषा तुरंत प्रभावकारी होती है।
लिपि थोड़ी विलंब से प्रभावकारी होती है।
6.
भाषा ध्वनि संकेतों की व्यवस्था है।
लिपि वर्ण संकेतों की व्यवस्था है।
7.
भाषा ही संगीत का माध्यम है।
परंतु लिपि नहीं।
भाषा और लिपि दोनों का उत्पत्ति एवं विकास सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ हुआ।
भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा और लिपि दोनों ही होती हैं।
भाषा और लिपि दोनों के अध्ययन हेतु आज की दुनिया में कई श्रोत मौजूद हैं, जैसे – वेबसाईट, वीडियो, डिजिटल उपकरण। परंतु प्राचीन काल में शिक्षा ही एक प्रमुख श्रोत था।
कभी-कभी भाषा और लिपि दोनों के ही माध्यम से अपने भावों और विचारों को व्यक्त करना मुस्किल हो जाता है। अर्थात दोनों ही अपने आप में परिपूर्ण नहीं हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी का उद्घोष भाषा और लिपि दोनों में किया जा सकता है।