नीना अंदौत्रा पठानिया की कहानियाँ 

नीना अंदौत्रा पठानिया

व्यवसाय - अध्यापिका व स्वतंत्र लेखन । 

अस्मिता महिला बहुभाषी संस्था की व अहमदाबाद बुक क्लब की सदस्या हैं ।

शास्त्री  जी

शास्त्री जी, जो कर्मकांड, पूजा-पाठ में उतना विश्वास रखते  नहीं थे जितना कर्म-कांड का दिखावा करते थे। स्वभाव से कुछ ज़्यादा ही उतावले। सेवानिवृत्त अध्यापक थे, जो हमेशा सामान्य कपड़े पहनते पर अग़र किसी के घर मे कोई पूजा करवानी होती तो पीली धोती, लंबा सफ़ेद कुर्ता पहने, माथे पर हल्दी और चंदन का ख़ास लेप किए नज़र आते। 

पंजाब के आख़िर में बसा ये गाँव रावी दरिया के किनारे पर था । जम्मू-कश्मीर का सीमावर्ती गाँव , उतर दिशा में जम्मू-कश्मीर और पश्चिम दिशा में लगभग 20-25 किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान बॉर्डर था। 

गाँव के कुछ लोगों ने एक सेवानिवृत्त अध्यापक को  शास्त्री जी - शास्त्री जी बोल कर सातवें आसमान पर बिठाया हुआ था । कुछ गिने-चुने लोग भी थे जो उनके आडंबर का विरोध करते हुए, उनको देखना भी गवारा नहीं करते थे। 

कार्तिक मास में सुबह 3-4 बजे के बीच ख़ूब प्रभातफेरियां निकालते। रावी दरिया में औरतों के साथ नहाने जाते। घर आकर सुबह स्पीकर लगा कर सत्संग, प्रवचन करते। कार्तिक मास के महात्म्य की कथाओं का वर्णन करते। औरतें भी अपनी चौरासी काटने के लिए प्रभातफेरी और सत्संग में ख़ूब योगदान देती।

शास्त्री जी की दूसरी शादी ने पूरे गाँव को एक अच्छा विषय दे दिया था बातचीत करने का। अमृतसर की ऊंची लम्बी, गूथले शरीर की महिला जो शास्त्री जी से 15-20 साल छोटी थी। शास्त्री जी इकहरे शरीर के मालिक, कद भी पांच फुट सात इंच के करीब। सब लोग शास्त्री जी और उनकी नई नवेली पत्नी के शरीर की बनावट में अंतर देख व्यंग्य कर ही देते। जो महिलाएं व्यंग्य न कर पाती वह व्यंग्य भरी मुस्कान से एक-दूसरी को इशारा कर अपनी कसर पूरी कर लेती।

पिछले कुछ महीनों से शास्त्री जी की पहली धर्मपत्नी गंगा की तबीयत  ठीक नहीं थी, पर वह किसी डॉक्टर को दिखाने की बजाय ख़ुद ही वैद्य बने हुए थे, ज़माने भर के काढ़े धर्मपत्नी को पिला दिए थे। 

गंगा चार बच्चों की मां थी। एक बेटी औऱ तीन बेटे। बेटी निर्जला का रिश्ता गंगा ने अपनी दूर की रिश्तेदारी में तय कर दिया था। गंगा कभी - कभी शास्त्री जी के उतावलेपन से तंग हो जाती पर हमारे समाज की पत्नियां पतियों  की अच्छाई ढूंढ़ कर बुराई पर पर्दा डालने में माहिर होती हैं और गंगा भी इस कला में निपुण थी। 

गंगा का स्वास्थ्य गिरता देख, उसके भाइयों ने निर्णय ले लिया कि हम गंगा का इलाज़ ख़ुद करवाएंगे। शास्त्री जी को न चाहते हुए भी गंगा के भाइयों की माननी पड़ी थी। डॉक्टर को दिखाने पर पता चला था कि गंगा को कैंसर जैसी लाइलाज़ बीमारी हो गई है और उसके पास समय भी अधिक नहीं है। भाई अपनी बहन के बारे में डाक्टर से ऐसा सुनकर दुखी थे, पर शास्त्री जी तब भी कर्मकांड की बातें कर रहे थे।

गंगा अपनी बेटी की शादी अपने जीवित रहते करना चाहती थी, पर वक़्त के हाथों मजबूर गंगा के मन की मन में ही रह गई और वह इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चली गई।

गंगा की मृत्यु को अभी महीना भर ही हुआ था कि शास्त्री जी को दूसरी शादी की जल्दी पड़ गई। किसी बिचौलिए ने पैसे लिए और तलाक़शुदा लड़की बता दी। लड़की की बुद्धि उतनी कुशाग्र नहीं थी जितनी सामान्य महिलाओं की होती है पर बुद्धि, विवेक से काम-वासना में लिप्त प्राणी को भला क्या काम? कामी को तो रूपवान कामिनी चाहिए ।

 शास्त्री जी को अब नींद नहीं आती थी। अक़्सर फ़ोन के साथ चिपके रहते। अपने अच्छे होने के सबूत अपने नए सास-ससुर को देते। पूरे परिवार के साथ मिलना-जुलना होने लगा, पर उनके अपने बच्चे दूसरे विवाह के ख़िलाफ़ खड़े थे।

वक़्त गुजरने लगा। गंगा को मरे सात महीने हो रहे थे और बेटी के ससुराल वाले गंगा की पहली पुण्यतिथि के बाद शादी की तिथि मांगने लगे ।

शास्त्री जी जब भी  अपनी शादी की बात घर में करते तो घर में सदा बहस का माहौल बन जाता । वह समझ चुके थे कि अग़र बेटी ने हाँ कर दी तो बेटे ख़ुद-ब-ख़ुद मान जाएंगे।

बेटी के ससुराल से शादी की तिथि के लिए फ़ोन आया तो शास्त्री जी को भी अपनी बात रखने का मौक़ा मिल गया।

“तेरी शादी हो जाएगी तो हमें खाना कौन देगा बनाकर?”

“कृष्णा की शादी कर लेंगे। इसकी बहू घर संभाल लेगी।” भाई की ओर इशारा करते हुए निर्जला ने कहा।

“अभी इसकी नौकरी नहीं और शादी करोगे इसकी।”

“आपकी आय से फ़िलहाल गुजारा हो जाएगा इस घर का फ़िर धीरे-धीरे नौकरी भी मिल जाएगी इसको।”

“मैंनें ठेका नहीं लिया सबके गुजारे का..., सब लोग ध्यान से सुन लो तेरी शादी तभी होगी जब मेरी हो जाएगी नहीं तो कोई शादी नहीं होगी इस घर में।” गुस्से से पैर पटकते हुए शास्त्री जी घर के बाहर चले गए। 

निर्जला ख़ुद भी शादी कर इस घर से दूर होना चाहती थी, इसलिए उसने विचार कर अपने भाइयों को समझा लिया और शास्त्री जी को शादी करने की अनुमति मिल गई । 

बेटी की शादी में शास्त्री जी की हरकतें एक पिता की कम और नए शादीशुदा पुरुष की ज़्यादा थी। बिना किसी की परवाह के उछल-उछल कर नई-नवेली दुल्हन के पास जाते और आपे से बाहर शास्त्री जी काम-वासना से लिप्त क्रीड़ाएँ करने लगते। लाल साड़ी में लिपटी दुल्हन का रूप उससे सहन करते न बन रहा था। 

बेटी की विदाई कर शास्त्री जी अब अपनी नई पत्नी के सौंदर्य का आनंद लेने में व्यस्त हो गए। अंतरंग पलों को सबसे बढ़ा-चढ़ा कर बताते। ज़्यादा बातें सत्संग वाली औरतों से होती। 

“आज के युवा नाम के युवा है, क्या रखेंगे औरतों को? नशे की लत से सोये रहते हैं और पत्नियों को सन्तुष्ट नहीं कर पाते।” औरतें कोई जवाब तो नहीं दे पाती, पर सिर झुका कर हाँ में हाँ ज़रूर मिला देती।

“मुझे पूछो सन्तुष्ट करना क्या होता है। मैं तो अपनी शास्त्रानी को पूरी रात सोने नहीं देता।” कुछ औरतें शास्त्री की बातें सुन एक-दूसरी को देख मंद-मंद मुस्कुरा देती तो कुछ मुँह को अपनी चुनरी से ढक लेती, पर शास्त्री जी अब ख़ुद से बाहर थे, चाहते थे औरतें अंतरंग विषयों पर उनके साथ चर्चा करें, पर औरतें धीरे-धीरे ख़िसकना ज़रूरी समझती। नई नवेली दुल्हन अब कुछ पुरानी हो गई थी, पर शास्त्री जी अभी भी काम रस में लिप्त थे। 

नयी शास्त्रानी अब पेट से थी। उसका घर संभालना, जानवरों की तरह काम-काज करना और शास्त्री जी को समय-समय पर संतुष्ट करना तो शास्त्री जी को पसन्द था पर अगर पसंद नहीं आया था तो उसका गर्भवती होना । जिस पत्नी का भूत शास्त्री जी के सिर पर पिछले कुछ समय से चढ़ा हुआ था, अब उसके गर्भवती होने का सुनकर वह भूत एकदम से उतर चुका था। बच्चे भी नयी माँ के गर्भवती होने की ख़बर से तिलमिला गए थे ।

“शास्त्री को बहुत मुबारक।” 80 वर्षीय ताई ने शास्त्री को व्यंग्य से कहा। 

“मेरा बच्चा नहीं है ताई ये, हरामज़ादी कुलटा पता नहीं कहाँ मुँह काला कर के आई है। ये जब अमृतसर गई थी तब इसकी माहवारी चल रही थी। उसके बाद मैंनें इसको हाथ तक नहीं लगाया फ़िर बच्चा कहाँ से आ गया।” शास्त्री बोले जा रहा था और ताई हाँ-हाँ करने लगी। 

हमारे समाज की सरंचना ही ऐसी हुई है। यहाँ व्यंग्य करने वालों की भी कोई कमी नहीं है न ही हाँ में हाँ मिलाने वालों की। कमी है तो सच - झूठ को कठघरे में खड़े करने वालों की। किसी भी बात की गहराई तक जाने की पर कोई क्यों किसी की पीड़ा की गहराई तक जाएगा। किसी की पीड़ा से किसी को क्या तकलीफ़।

शास्त्री जी के बेटों ने शास्त्रानी को भैंस बुलाते, हर समय उसके प्रसव पर व्यंग्य करते हुए आने वाले बच्चे को  काट्टा बोलते और आते-जाते काट कर मारने की बात करते।

शास्त्री ने अपनी सारी ज़ायदाद अपने तीनों बेटों के नाम लगा दी और शास्त्रानी को अमृतसर भेज दिया था। 

शास्त्रानी ने कुछ महीनों बाद बेटे को जन्म दिया पर शास्त्री जी देखने तक नहीं गए। जब भी कोई बधाई देता तो वह सब मर्यादाओं को लांघ कर शास्त्रानी को चरित्रहीन बोल देते। 

बेटा पांच महीनों का हो गया था। शास्त्रानी के माँ-बाप, भाई-बहन सब शास्त्रानी को छोड़ने आये पर शास्त्री ने साफ़ मना कर दिया रखने को। उसके तीनों बेटों ने शास्त्रानी पर हाथ तक उठा दिया और तक़रीबन - तक़रीबन हमारे समाज की ज़्यादातर औरतों की तरह अब शास्त्रानी भी आँसू बहा रही थी।

"पूछिए अपनी मन्दबुद्धि बेटी को कहाँ मुहँ काला किया है।" तल्ख़ी से शास्त्री  ने शास्त्ररानी की ओर इशारा करते हुए कहा।

"आज मैं तुम्हें मन्दबुद्धि लग रही हूँ? सिर्फ़ इसलिए कि मेरी गोद में ये बच्चा है पर तब मन्दबुद्धि नहीं लगी जब अपनी हवस पूरी करता था।" एक सीधेपन में आक्रोश था, इल्ज़ाम था लुट जाने का ।

"चुप कर कुल्टा कहीं की।"

"ख़ुद को देख़ पाखंडी, कितने पाखंड से भरा हुआ है तू। इंसान कहलाने के लायक़ नहीं है और शास्त्री बना हुआ है।" 

बहस जोरों पर थी चतुरता निशाना साध रही थी और भोलापन ठगी आवाज़ में सामना कर रहा था ।

शास्त्री ने वही सब तर्क़ दिए जो वह पिछले कुछ महीनों से लोगों को सुना रहा था ।

वो शादी जो सिर्फ़ वासना की तृप्ति के लिए की गई थी वो टूट चुकी थी । देह मोह भंग हो चुका था।

शास्त्रानी अपने नन्हें बेटे को छाती से चिपका कर अपने माँ-बाप के साथ जा चुकी थी और शास्त्री, शास्त्री जी बन मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथा करने में व्यस्त थे । पास के एक गाँव के मंदिर में शास्त्री जी ने पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया । दाढ़ी बढ़ाकर एक ढोंगी बाबा बनकर लोगों की लाईलाज़ बीमारियों का उपचार  करते, जिन दंपतियों के संतान न होती वह बड़ी तादाद में शास्त्री जी से दवाई लेने आते और शास्त्री जी पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक तरह के यंत्र - मंत्र, जड़ी - बूटियां देते और पति - पत्नी सबंधों पर खुलकर चर्चा करते । आस-पास के गाँव में शास्त्री जी को काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त हो रही थी। 

कार्तिक मास की प्रभातफेरी ज़ोरों पर थी।