डॉ. साक्षी सिंह

डॉ. साक्षी सिंह 

हिंदी फैकल्टी अनएकेडमी

नई दिल्ली । 

1."जाति" नहीं जाती 

सारे जतन कर लिये हैं 


बुद्धि से विवेक से


मन की भी ले आई थाह-टोह


किंतु मुफ़्त में मिला


उत्कृष्टता का मोह 



मेरे भीतर, बहुत भीतर


बैठा है कुंडली मारे


गाहे-ब-गाहे जाग कर फुफकारता है 


अट्टहास करता, मुस्कुराता है


फ़िर;

हिलोरें मारने लगती है मेरे भीतर 


निकम्मी जाति की मिथ्या उत्कृष्टता विषपायी 


खोखले और दोगले सब मूल्य मेरे


जान पड़ते हैं धराशाई |