रंजना चौबे
नाम : रंजना महेंद्र चौबे
पद : रिसर्च एसोसिएट
शहर : मुंबई
1. रिश्तों के नवांकुर
रिश्तों के नवांकुर
बड़े ही नाजुक
अल्हड़
करुण गान लिए होते है।
अपने अस्तित्व का मान लिए होते है।
ये नवांकुर
कभी सूखते नहीं
बिखरते नहीँ
बल्कि इनकी बलि दी जाती है।
कई तरीकों से
कई बातों से
कई घात-प्रतिघात से
कभी अहम् के टकराव से
तो कभी अभिमान के दम्भ से
कभी घोंट देती है इनका गला
धर्म की दीवार
जाति की आड़
तो कभी इनकी साँसे रोक ली जाती है
मान और प्रतिष्ठा के नाम पर
फिर भी,
इन रिश्तों के नवांकुरों में
झरती
पनपती
स्वच्छंद भ्रमर करती एक कसक होती है
एक अभिव्यक्ति होती है
मूक अभिव्यक्ति
हाँ, मूक अभिव्यक्ति
जो बिना कुछ बोले
बिना कुछ कहे
सब कुछ तार-तार करके
अभिव्यक्त हो जाती है।
क्योंकि
रिश्तों के इन नवांकुरों में
एक नया उत्साह, उमंग, उल्लास
विश्वास व आत्मविश्वास होता है।
जो धर्म व समाज से पाक व प्रगाढ़
संबंधों के रूप में अपनी जिन्दा
और जिंदादिल अभिव्यक्ति चाहती है।
2. दर्रों के बीच
आज जनसैलाब उन दर्रों के पास आ खड़ा हुआ है।
जहाँ एक अजीब सी गरमाहट है
एक कसमसाहट है
भावों-विचारों की
मन-ही-मन संगीन अंतर्द्वंद्व है।
कहीं चोट-खसोंट
कही आह-दाह
कहीं विरह-वेदना
कहीं राग-विराग
कहीं दारुण-करुणा
कहीं दग्ध प्रतिशोध
कहीं कलंकित, कलुषित मानवता
कितनी बदरंग है इन दर्रों की दरार...!
इन दरारों को सुनाई देती है
जर्जर चीख-पुकार
दम तोड़ती आह
सिसकती आस
लेकिन ये विशालकाय बूत-सा खड़ा दर्रा
कन्नी काटता है
इन चीखों के अनहद नाद से।
वह दूर जाता है इनकी तन्हाइयों से
परछाइयों से ताकि
धुमिल न हो इन जर्जर दर्रों का दर्रा
इन अभाववग्रस्तों की अभावग्रस्तता से।
अभावग्रस्तता से...
3. तुम
तुम आज भी मेरे ही हो
भले हम एक-दूसरे से दूर है
अलग है
कारण चाहे जो हो
लेकिन आज भी
मेरी साँसे
मेरी आह
मेरा करूण कराह
मेरी अपनी भावनाएँ
दम तोड़ती भावनाएँ
मेरे द्वन्द्व और अंतर्द्वन्द्व
मेरी मूक चीख
मेरी रुदाली में तुम
और तुम्हारा वो असीम प्यार है।
मेरे हर जर्रे में आज भी तुम ही हो ।
आज भी
मेरी पायल की छमछम
चुड़ी की खनखन में तुम्हारी महक है।
मेरी मांग के सिन्दूर के हर क़तरे में तुम हो
मेरे लहु के हर कण में तुम हो
और पता है तुम्हें
मेरे हाथों की लकीरें आज भी कुछ समय बाद बदल जाती है
इस आस में की कभी तो इस पर फिर से तुम्हारा नाम हो।
हमारा बिछड़ना नियति न थी
नियति का खेल
एक ऐसा खेल जिसे हमनें न खेला न जाना
बस बह गए उसकी अविरल धार में
बिना पतवार के नाव की तरह
बिना पतवार के नाव की तरह।
4.चूल्हा
आज भी याद है
धुआँ फेंकता
धधकता
कभी लपटें उगलता
जलता -सुलगता चूल्हा
इस चूल्हे को देख
याद आती है अमीना
याद आता है हामिद का बचपन
और याद आती
इसी चूल्हे की आग में
जलती-भूनती
दहेज की बलि चढ़ती बहू
जिसकी मेहंदी का रंग
इस चुल्हे में जला
चूड़ी की खनक भी
इसी चूल्हे में ख़ाक हुई।
और फिर
एकाएक
याद आती है
वो रोटी
जो इस चूल्हे में बनकर
गरीब की भूख मिटाती है।
किसी की क्षुधा तो किसी की पिपासा को
शांत करती है।
क्या वाकई इस चूल्हे में
इतनी ताकत
इतना साहस
इतना विद्रोह
इतना विरोधाभास छिपा है
कभी लगता है कि
इन लपटों में ये बहुत कुछ निगल रहा है और कभी एक सुगबुगाहट-सी होती है कि
दिन-रात जलता,तपता,धधकता चूल्हा उदास है।
वाकई बिलकुल उदास
बुझी हुई आग-सा उड़ास
राख की ढेर-सा उदास…
5. बचपन
बचपन
नादान
अल्हड़
कभी झूमता,कभी घूमता
बर्फ सा सफेद
सतरंगी लालिमा लिए
कभी स्याह, कभी फेनिल
बचपन की गलियों में झाँकता बचपन
कभी माँ की गोद में सिमटता
तो कभी पिता की छाव में इतराता
रिश्तों की बाग़डोर थामता बचपन
रिश्तों में रचता-बसता बचपन
कभी दरवाजे की ओट से झाँकता
तो कभी खिड़की निहारता बचपन
गेंद के पीछे दौड़ता-भागता बचपन
बल्लेबाजी के लिए दुलराता बचपन
गिल्ली डंडे को उछालता
कंचे फेंककर झूमता बचपन
लट्टू नचाता नादान बचपन
वक़्त के पहियों की करवट बदलता बचपन
उम्र के गलियारे की एक हसीं शाम है बचपन
जिंदगी का खूबसूरत पड़ाव है बचपन
बचपन के रंगीन सपनों से ही जिंदगी सजती है
और
सच तो ये है कि
इस बचपन में ही जिंदगी बसती है।
बचपन में ही जिंदगी बसती है।