विनीता पांडे

श्रृंग भृंग मद ताल को लिये‌ ऋषि प्रयाग को आए हैं

हर रंग -रूप भेष -भूषा जाती-भेद मिटाएं,

बरसों -बाद सब मिलकर कुंभ नहाने आयें,


नागा भस्म लगाए,शिव धुन में रमणाये

मनस्वी अपनी अधिचेतनता,पाप को गंगा में बहाये।


श्राद्ध करत अपने पितरों की ,यज्ञ हवन करवायें,

नाद करत ,अंजन करत, आरती गुन गाये


कहे मां गंगा पाप धोये ,वही तद् पानी भर लाये। 

 तन और ऑच 

सर्दी की निष्ठुरता ने अंग को 

मेरे जमा दिया ,

रक्त सुख कर बर्फ बने  

धूप याद सता रहा ,

कभी मै खुद पर छाव करती 

तो कभी एक चददर  तन लेती , 


नही माना  ऑच तनिक भी धिरे -धिरे 

बढता रहा ,

वो ऑच मुझे सताता रहा ,

वो ऑच मुझे जलाता रहा, 

वो ऑख मुझे दिखाता रहा , 


रे बैरी बस कर अब जल कर 

  मैं खाॅख हुई

मेरे सब्र का इम्तहान  न ले 

तुझ  तन लागे मेंघ घङी, 

साँझ के तन तु जा लग जा 

मीन  के संग नीर भली 

तेरा मेरा  मेल नही,

रे तेरा मेरा मेल नही।